जीने वाले कज़ा से डरते हैं, ज़हर पीकर दवा से डरते हैं.
शक़ील बदायुनी के लफ़्ज़ आज बहुतों की ज़िन्दगियों की हक़ीकत है. शक़ील को विरासत में मुफ़लिसी नहीं मिली थी, पर बहुत छोटी सी उम्र में ही उन्हें शायरी का शौक़ लग गया था. पिताजी ने अलग-अलग भाषाओं की तालीम के लिए घर पर ही उस्ताद रखवा लिए थे. अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में भी वे अकसर मुशायरों में शिरक़त करते थे.
शक़ील की कलम से न सिर्फ़ हमें बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल और शेर मिले हैं, बल्कि बहुत से अच्छे गाने भी मिले हैं.
पेश है उनकी कलम से निकले कुछ गाने और शेर-
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