सोशल मीडिया और वीडियो गेम के जमाने में हम आज अपने परम्परागत खेलों को शायद भूल गये हैं. मगर आज भी हमारे ग्रामीण क्षेत्रों ने कई पुराने खेलों को सहेज कर रखा है. इन खेलों में से एक है, चौसर. चौसर हमारे देश के सबसे प्राचीन खेलों में से एक है. यह खेल बिसात पर चार रंगों की चार-चार गोटियों और तीन पासों से खेला जाता है.

भोलेनाथ को थी चौसर में विशेष रुचि

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पौराणिक हिन्दू ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि भगवान शिव और माता पार्वती चौसर का खेल खेलते थे. यह खेल वे अपने दांपत्य जीवन की सहजता और मनोरंजन के लिए खेलते थे. भगवान भोलेनाथ को तो चौसर खेल में विशेष रुचि थी. महादेव के चौसर के प्रति लगाव को देखते हुए आज भी मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर में शयन आरती के पूर्व भगवान के विश्राम के लिए सिर्फ सेज ही नहीं सजती, चौसर भी बिछती है. आपको बता दें कि हर ज्योतिर्लिंग की अपनी अलग विशेषता है. जहां उज्जैन के महाकालेश्वर मन्दिर की भस्म आरती का महत्त्व है, उसी तरह औंकारेश्वर की शयन आरती विशेष महत्ता रखती है.

महाभारत के युद्ध की एक वजह चौसर भी था

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यही साधारण सा मनोरंजक खेल महाभारत में द्रौपदी के चीर-हरण की वजह बन गया था. शकुनि ने पांडवों को चौसर के खेल के लिए आमंत्रित किया. शकुनि चौसर का बहुत कुटिल खिलाड़ी था, उसने धीरे-धीरे युधिष्ठिर को एक-एक करके सभी चीज़ें दांव पर लगाने को मजबूर कर दिया. आखिर में युधिष्ठिर द्रौपदी को भी हार गया. उसी दिन से महाभारत के युद्ध की नींव पड़ गई थी.

वक़्त के साथ फैलता गया चौसर का दायरा

वक़्त के साथ-साथ यह खेल दुनिया भर में फैलता गया. बगदाद के अरबी कवि अल-सबादी के अनुसार, ‘तीन चीज़ें भारत ने विश्व को दी हैं- अंक और गणना पद्धति, शतरंज का खेल और कथाएं.’ कोल्लेयर ने इस सूची में रेखागणित के सूत्र और चौसर को भी जोड़ा है.

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समय के साथ यह खेल राजा-महाराजाओं में काफ़ी लोकप्रिय हुआ. दो बड़े राजा जब भी कभी आपस में मिलते, तो मनोरंजन के तौर पर चौसर की बिसात बिछा दी जाती. कालान्तर में यह खेल अभिजात्य वर्ग से निकलकर आमजन से जुड़ गया.

देश से बाहर यह खेल प्रथम विश्वयुद्ध में काफ़ी लोकप्रिय हुआ. अस्पतालों में घायल सैनिक अपना ख़ाली समय बिताने के लिए चौसर खेलते थे. कई जनजातीय कबीलों में भी इस खेल को खेलने की परम्परा रही है, खासतौर पर मेक्सिको के आस-पास के क्षेत्र में.

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इस खेल का एक रूप लूडो के नाम से ब्रिटेन समेत दुनिया के कई अन्य देशों में खेला जाता है. लोक संस्कृति के रूपों में चौसर आज भी जीवित है. आज भी हमारे देश के गांवों में जाने पर आपको कई लोग चौसर की बिसात बिछाये हुए नज़र आ जायेंगे.

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बदलते वक़्त के साथ सब कुछ परिवर्तित हो जाता है. हमारे पूर्वजों के चौसर को आज के बच्चे लूडो के रुप में खेल कर उस कड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं. पुरानी कड़ी से नई कड़ी को जोड़ना ही मानव समाज का आगे बढ़ते रहने का विशेष गुण है. चौसर भी आज उस कड़ी का हिस्सा बन चुका है.

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