भारतीय वायु सेना के पायलट अभिनंदन पाकिस्तान फ़ौज की हिरासत में थे. अब वो सुरक्षित भारत वापस आ चुके हैं. इस मौजूं से एक पुराना किस्सा याद आया है. 

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1971 की भारत-पाकिस्तान लड़ाई में बदकिस्मती से भारत वायु सेना के 16 पायलट पाकिस्तान की हिरासत में चले गए थे. उन्हें जंगी क़ैदी की हैसियत से रावलपिंडी के एक ख़तरनाक जेल में रखा गया था. उनमें से तीन जवानों ने इतिहास के सबसे ख़तरनाक प्रिज़न ब्रेक को अंजाम दिया था, ये कहानी उसी घटना की है. 

ग्रुप कैप्टन दिलीप पारुलकर ने एक योजना बनाई और उसमें फ़्लाइट लैफ़्टिनेंट एस. गरिवाल और फ़्लाइंग ऑफ़िसर हरीश सिंहजी को शामिल किया. 

हालांकि, जंग ख़त्म हो चुकी थी वो लोग जंगी कैदी के तौर पर पाकिस्तान की हिरासत में थे. लेकिन दिलीप पारुलेकर का मानना थी कि जंग तब तक ख़त्म नहीं होगी जब तक वो अपने घर वापस नहीं चले जाएंगे. 

इस बीच भारत में एक जंगी क़ैदी की मौत हो गई थी इसलिए ये भी डर बना हुआ था कि इसका असर पाकिस्तान के क़ैद में मौजूद भारतीय जवानों के ऊपर भी पड़ेगा. 

दिलीप पारुलकर ने दोनों साथियों के साथ मिलकर गड्ढा खोदा और जेल की दीवार के बाहर निकल गए. कुछ ही घंटों के भीतर वो पेशावर में थे. 

अगर वो भारत की ओर जाते तो उन्हें दो देशों की फ़ौजों की गोलियों के बीच से गुज़रना पड़ता. इसलिए उन्होंने उत्तर की दिशा में आगे बढ़ना ठीक समझा. नक्शा देखने के बाद उन्हें पता चला कि वहां से ठीक 34 मील दूर तोरखम शहर के पास अफ़गानिस्तान-पाकिस्तान बॉर्डर लगता है. 

जंगी क़ैदी के तौर पर मिले भत्ते को उन्होंने बचा कर रखा था, उसकी मदद से बस और तांगा पकड़ कर वो जल्दी ही Jamrud पहुंच गए. वहां से उन्हें तोरखम जाना था लेकिन कोई शक़ न करे इसलिए मानचित्र पर बना आखिरी स्टेशन Landi Khana जाने के लिए टैक्सी करने लगे और यहीं एक बड़ी ग़लती कर दी. 

Indian Express को दिए साक्षात्कार में तीनों ने बताया कि मैप पर जिस Landi Khana का ज़िक्र था, वो अंग्रेज़ों के ज़माने में हुआ करता था और 1932 में ही बंद हो गया था. जब वो टैक्सी वाले से बात कर रहे थे तब पास में खड़े एक तहसिलदार को उनपर शक़ हुआ और उसने तीनों को हिरासत में ले लिया. 

दिलीप ने बचने के लिए एक और प्लान बनाया और उन्होंने तहसिलदार को अपनी पहचान पाकिस्तानी एयर फ़ोर्स के जवान के तौर पर बताई और लंबी बातों में उलझा कर पाकिस्तान एयर फ़ोर्स स्टेशन, लाहौर के ADC से बात कराने को राज़ी करा लिया. फ़ोन पर दिलीप पारुलकर ने Phillip नाम से ADC को कन्फ़्युज कर दिया और ADC ने तहसिलदार को उन्हें छोड़ देने का आदेश दे दिया ये कह कर कि वो तीनों उनके ही आदमी हैं. 

हालांकि, आगे चलकर वो दोबारा से पकड़े गए और महज़ बॉर्डर से तीन मिल दूर उनका सफ़र ख़त्म हो गया और उन्हें वापस से पेशावर भेज दिया गया. 

तीन महीने बाद तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्र प्रमुख ज़लुफिकार अली भुट्टो ने सभी जंगी कैदियों को छोड़ने का आदेश दे दिया. 

1 दिसंबर, 1972 को वो लोग वापस भारत आ गए, लेकिन उससे पहले उनकी जेल से भागने की कहानी भारत आ चुकी थी. इस कहानी के ऊपर तरनजीत सिंह नाधारी फ़िल्म भी बना रहे हैं.