हम एक सभ्य समाज का हिस्सा हैं, जहां किसी को गाली देना असभ्यता की निशानी माना जाता है. यही बात हमें हमारे पेरेंट्स बचपन से सिखाते हैं कि बेटा गाली देना अच्छी बात नहीं होती, गाली गंदे बच्चे देते हैं अच्छे इंसान बनो, हम भी उनकी इस बात को स्कूल लेवल तक चूरन की पुड़िया की तरह संभाल के रखते हैं. लेकिन कॉलेज पहुंचते ही दोस्तों के साथ हमारी भाषा की सीमाएं भी हमारे शरीर की तरह फैलने लगती हैं. आज हम बात गालियों की करने जा रहे हैं कि क्या हम एक गालियों वाले समाज की ओर बढ़ रहे हैं, जहां बड़े तो क्या बच्चे भी गाली का इस्तेमाल करते हैं. अकसर बातों-बातों में पेरेंट्स के सामने हमारे मुंह से गालियां निकल जाती हैं जिसके लिए हमें कोई पछतावा नहीं होता, क्योंकि इनका इस्तेमाल हम अपनी नॉर्मल लाइफ़ में दोस्तों के साथ करते रहते हैं. अगर दोस्तों के बीच हम एक दूसरे को चू**या, फ़क ऑफ़ बोल दें तो चलता है लेकिन यही बात अगर हम अपने पेरेंट्स के सामने बोल दें तो फिर खैर नहीं.

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अकसर देखा जाता है कि जब कोई इंसान ऑफ़िस के लिए लेट हो रहा हो और लम्बा जाम लगा हो तो उस वक़्त उसके मुंह से फ़क ऑफ़, MC, BC निकलना आम बात है. या फिर आपकी गाड़ी के सामने से कोई बंदा रोड क्रॉस करता हुआ निकल जाए तो मुंह से गाली निकलना कोई बड़ी बात नहीं है. कोई ख़ुशी का मौक़ा हो जैसे ऑफ़िस में उम्मीद से ज़्यादा सैलरी हाईक हो या फिर इंटरव्यू की कॉल, गालियां निकलना यहां भी नहीं रुकता. आज के यूथ के लिए गालियां सिगरेट के धुंए की तरह हो गई हैं जो झट से मुंह से निकली और फुर्र से धुंए की तरह हवा में गायब हो जाती हैं.

गालियों का मेरे साथ बहुत पुराना रिश्ता रहा है एक बार बचपन में मैंने अपने भाई को सबके सामने साला बोल दिया था. फिर क्या था पापा ने जमकर धुनाई की और ढेर सारा ज्ञान अलग से दे डाला. उस वक़्त साला बोलना भी गाली हुआ करती थी हमारे पेरेंट्स इन बातों पर भी हमारी पिटाई कर दिया करते थे. लेकिन आज तो MC, BC, चू**या, फ़क ऑफ़ जैसी गालियां आम बात हो गई है. पर जो भी हो ये बात तो माननी पड़ेगी कि ख़ुशी का इज़हार करना हो या गुस्से में गाली देने से राहत तो मिलती है. और ये हम ही नहीं, बल्कि साइंस भी इस बात को मानता है कि गालियां देने से आप कुछ हद तक अपने गुस्से को कम करते हैं.

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साल 2009 में Keele University में हुई एक स्टडी से ये निष्कर्ष निकला कि गाली देने से दिल को सुकून मिलता है और मुसीबतों से लड़ने की क्षमता मिलती है. स्टडी के अनुसार, जब कुछ स्टूडेंट्स के हाथों को अत्यधिक ठंडे पानी में डाला गया, तो जो छात्र इस प्रक्रिया के दौरान गाली दे रहे थे वो ज़्यादा देर तक पानी में हाथ रखने में सफ़ल रहे, जबकि जो गाली नहीं दे रहे थे या कम गाली दे रहे थे वो ज़रा सी देर में पानी से हाथ बाहर निकालकर खड़े हो गए. इससे ये भी अनुमान लगाया गया कि चिल्लाने और ग़लत शब्दों का इस्तेमाल करने से एड्रेनालाईन नामक एक हार्मोन रिलीज़ होता है, जो दर्द को झेलने की ताकत देता है. इस अध्ययन से एक बात तो साफ़ हो गई है कि गाली देना इतना भी बुरा नहीं है.

तो भईया, अगर गाली देने से दिल को सुकून मिलता है और मुसीबतों से लड़ने की क्षमता मिलती है तो गाली देने में कोई बुराई नहीं है बॉस.