बबलू एक मकैनिक था. गैराज से लौटते वक़्त वो अपने 10 साल के बेटे रहीम को चाय पिलाते हुए, चाय वाले से बात करने लगा. बात ख़त्म होने ही वाली थी, तभी बबलू ने रहीम से कहा, ‘बेटा तुम घर चलो, मैं आ रहा हूं.’ रहीम थोड़ा ही आगे बढ़ा था कि बबलू को एक धमाके की आवाज़ सुनाई दी. बबलू और वहां खड़े बाकी लोग उस तरफ़ भागे. वहां पहुंचकर देखा कि ज़मीन के नीचे धमाका होने से 100 फुट गहरी खाई बन गयी है. रहीम उसी खाई में गिर गया था. बचाने के लिए बबलू भी भागा और उसका पैर भी फिसल गया. बाप-बेटे दोनों धधकती आग में स्वाहा हो गए.

15 मिनट के अंदर 2 ज़िन्दगियां तबाह हो गईं. ये पहली घटना नहीं है, झारखण्ड का झरिया कोल फील्ड इलाक़ा पिछले 100 सालों से ज़मीन के अंदर ही अंदर सुलग रहा है. झरिया, झारखण्ड के धनबाद ज़िले में है और धनबाद, झारखण्ड के सबसे बड़े शहरों में से एक है. लेकिन झरिया की पहचान इस रूप में ज़्यादा है कि इसका नाम भारत के सबसे बड़े कोयला खदानों में शुमार है.
यहां का लगभग हर निवासी बीमार है. अधिकारियों ने लोगों को घर छोड़ने की सलाह तो दी, मगर वो जानते हैं कि कहीं और भूखों मरने से अच्छा है, कि इसी जगह मौत को जब तक बहलाया जा सके, तब तक जी लें.
भारत के विकास का पहिया कोयले से चलता है

यहां की ज़मीन इतनी गर्म है कि इन्सान का जूते पहनकर भी चलना मुश्किल है, मगर भारत के विकास का पहिया यहां के कोयले से ही चलता है. भारत के अब तक की विकास यात्रा में कोयले का बड़ा योगदान रहा है और झरिया अच्छी क्वालिटी के कोयलों का बड़ा भंडार है. कोयले के सहारे ही लोहे और स्टील के कारख़ाने चलते हैं. 90 के दशक तक भारतीय रेल की गति भी कोयले पर निर्भर थी. आज भी भारत की 65% बिजली कोयले से पैदा की जाती है.
1916 में लगी थी यहां पहली आग

450 वर्ग किलोमीटर में फैले झरिया के कोयला खानों पर लगभग 5 लाख लोगों की ज़िन्दगियां निर्भर हैं. यहां कोयले का खनन 1894 से शुरू हुआ और अब तक चल रहा है. झरिया के कोयला खानों में पहली आग 1916 में लगी. पता नहीं बिजली गिरी, आग जंगल से आई या किसी इन्सान ने लगाई, मगर उसकी चिंगारी 100 साल में कई बार शोला बनकर हज़ारों की ज़िन्दगी के लिए काल बन चुकी है. जिस समय पहली आग का पता चला उस समय निजी कंपनियों द्वारा कोयला खनन का चलन था. उन्हें बस कोयले से मतलब था, लोगों की सुरक्षा से नहीं. इस क्षेत्र के लोगों की आस तब जगी जब 1971 में कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण हुआ.
कोयले की आग आसानी से नहीं बुझती

जलना कोयले का स्वभाव है और ऑक्सीजन के कारण ये और तेज़ जलता है. इसे बुझाना वैसे ही आसान नहीं होता और अगर ये ज़मीन के बहुत नीचे हो तब तो नामुमकिन ही है. BCCL के एक अधिकारी के मुताबिक़, ‘बाहरी कारणों के अलावा आग को ग्लोबल वार्मिंग, हवा का बहाव, भूकंप और Tectonic प्लेट्स का सरकना, भी बढ़ाते हैं. ज़मीन की ये आग अब तक लगभग 37 मिलियन टन कोयले को जला चुकी है.’
अवैध खनन इस आग की एक बड़ी वजह है

झरिया ही अकेली ऐसी खान है जहां कोकिंग कोयला निकलता है. ये आसानी से जलने वाले कोयले होते हैं. दूसरी जगहों पर कोयले का खनन इंजीनियर्स की देख-रेख में, सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए होता है. मगर जब यहां के स्थानीय लोग कोयला निकालते हैं, तो उन्हें बस ज़मीन में गड्ढा करके कोयला निकालने से मतलब होता है. खान में जाते समय रौशनी के लिए ये लोग मोमबत्ती या लालटेन का प्रयोग करते हैं, जो अपने आप में ख़तरनाक है क्योंकि खान के अन्दर कई बार ज्वलनशील गैस बन जाती है.
हवा नहीं ज़हर बहता है यहां

ज़मीन के अन्दर की आग ने यहां की हवा, पानी और मिट्टी सब को दूषित कर दिया है. धुंए की शक्ल में यहां Sulphur Dioxide, Carbon dioxide और Arsenic जैसी ज़हरीली गैसों और धूल से लोगों को सांस की कई बीमारियां हो जाती हैं. ज़मीन के अन्दर बड़ी-बड़ी गुफ़ाओं के चलते यहां रेलवे के कई रूट्स को सरकारी घोषणा के अनुसार बंद कर दिया जाना चाहिए था फिर भी न कभी ये खनन रुक सका और न ही रेल.
जहां घर है वहां रोज़गार नहीं, जहां रोज़गार है वहां घर नहीं

झरिया में सरकार द्वारा पुनर्वास के कई प्रयास किए गए मगर स्थितियां कभी बदल नहीं सकीं. BCCL ने पास के इलाक़े बेलगढ़िया में घर बनाकर वहां बिजली, पानी, स्कूल आदि की सुविधा देने की एक कोशिश की है, मगर मुख्य शहर से 20 किलोमीटर दूर होने के कारण यहां कोई भी रहना नहीं चाहता. परिस्थिति से हार कर लोग फिर से आसपास के इलाक़ों में रहने लगे, क्योंकि रोज़गार के लिए उन्हें शहर पर ही निर्भर रहना है.
झरिया और आसपास के इलाक़े में रहने वाले लोगों की बस दो ही मांग हैं; सुरक्षा और रोज़गार. इन दोनों ही मुद्दों पर यहां का सारा प्रशासन असफ़ल नज़र आता है. लोग अपनी ख़ुशी से इन आग लगी खानों में नहीं उतरते, उनके पेट की आग उन्हें मजबूर करती है.