इतिहास, जितना दिलचस्प है, उतना ही रहस्यमय. इस धरती पर बहुत से लोग आए और चले गए, पर इतिहास में कुछ लोगों ने ही जगह बनाई. जो इतिहास के पन्नों का हिस्सा बन गए, उनकी ज़िन्दगी भी पहेलियों से भरी हैं. ऐसे ही एक किरदार हैं पेशवा नान साहेब, जिनकी ज़िन्दगी बहुत प्रेरणादायक रही और मौत एक पहेली बन गयी. नाम याद है या भूल गए?

पेशवा नाना साहेब के पिता का नाम भी इंटरनेट पर अलग-अलग ही मिलता है. कहीं माधव राव को उनका पिता बताया जाता है, तो कहीं नारायण भट्ट को. 19 मई, 1824 में बिठूर में धूंधूपंत (नाना साहेब) का जन्म हुआ. 1827 में पेशवा बाजीराव द्वितीय ने उन्हें गोद ले लिया.

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नाना साहेब को ‘बालाजी बाजीराव’ भी कहा जाता है. वीर शिवाजी के बाद नाना साहेब मराठाओं के सबसे प्रभावशाली शासकों में से एक थे. 1749 में छत्रपति शाहू जी ने पेशवाओं को मराठाओं का शासक बना दिया था. शाहू जी का अपना कोई पुत्र नहीं था, इसीलिए उन्होंने पेशवाओं को शासक बना दिया था. मराठा मंत्रियों को पेशवा कहा जाता था.

1851 में बाजी राव द्वितीय की मृत्यु के बाद, Doctrine of Lapse Treaty के कारण नाना साहेब को मराठा सिंहासन नहीं मिला. अंग्रेज़ों ने नाना साहेब को 8,00,000 पाउंड सालाना पेंशन के रूप में देना निश्चित किया गया था. परन्तु नाना साहेब ने पेशवा की उपाधि ग्रहण कर ली और अंग्रेज़ सरकार ने उनकी पेंशन रोक दी. दीवान अज़ीमुल्लाह खान की सहायता से नाना साहेब ने इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया को आवेदन पत्र भेजा. अज़ीमुल्लाह ने बहुत से प्रयत्न किए, लेकिन सफ़ल नहीं हुए. नाना साहेब को अंग्रज़ों के इस रवैये से बहुत दुख पहुंचा.

यहां तक फिर भी सब ठीक था, पर जैसा कि इतिहास के हर बिंदु के साथ ही होता आया है. नाना साहेब के इसके बाद का जीवन भी रहस्यमयी है. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि नाना साहेब ने मजबूरी में स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया. हालांकि बचपन से हमें यही पढ़ाया गया है कि नाना साहेब आज़ादी की पहली लड़ाई के शिल्पकार थे. हक़ीकत पर मुहर लगाने की न तो हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी है और न ही उतनी काबिलियत. तो जो पढ़ते आए हैं, उसी पर अडिग रहते हैं.

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नाना साहेब चुप बैठने वालों में से नहीं थे. अंग्रेज़ों से अनबन के बाद, नाना साहेब ने तीर्थयात्रा प्रारंभ की. इतिहासकर मानते हैं कि ये एक तरीका था देश के अलग-अलग क्षेत्रों के राजाओं को एकजुट करने का. 18 April 1857 को नाना अपने खासमखासों के साथ लखनऊ पहुंचे. मुग़ल बादशाह बहादुर शाह, बेग़म ज़ीनत महल और दिल्ली दरबार के अन्य लोगों से भी मिले. लखनऊ से चलकर वे अंबाला पहुंचे. इसके अलावा नाना साहेब बिहार के कुंवर सिंह से भी मिले. जैसा कि हम सभी जानते हैं, 1857 की क्रांति इसीलिए सफ़ल नहीं हो पाई थी, क्योंकि क्रांति तय तारीख़ पर शुरू नहीं हो पाई. जनवरी 1857 में एक छोटी-सी बात पर कोलकाता के दमदम क्षेत्र में क्रांति शुरू हो गई. पर नाना ने तय तारीख 31 मई तक रोकने का निर्णय लिया. क्रांति का कारण था सुअर और गाय के मांस से बने Cartridge, जिसे सैनिकों को दांत से फाड़ना पड़ता था. पुराने Cartridges को हाथों से तोड़ा जा सकता था, पर अंग्रेज़ों ने नए तरह के Cartridges लाकर, सैनिकों को विद्रोह करने पर मजबूर कर दिया.

1857 की क्रांति के साथ कई किंवदंतियां भी हैं, जिससे क्रांतिकारियों का भी दोहरा चरित्र सामने आता है, सतीचौरा घाट पर सैंकड़ों निर्दोष अंग्रेज़ महिलाओं और बच्चों को मौत के घाट उतारना उन्हीं घटनाओं में से एक है.

नाना साहेब का जीवन अंग्रेज़ों से लड़ते-लड़ते ही बीता. पर उनकी मृत्यु रहस्य ही बनी हुई है.

कानपुर पर अंग्रेज़ों के दोबारा कब्ज़े के बाद से ही नाना साहेब के ठौर-ठीकाने की सही जानकारी नहीं है. नाना के गायब होने के बाद उनके विश्वासपात्र सेनापति, तांत्या टोपे ने कानपुर पर अधिकार करने की कोशिश की, पर सफ़ल नहीं हो सके. कानपुर से लापता होने के बाद नाना साहब के जीवन का सही-सही कोई भी प्रमाण या दस्तावेज़ नहीं है.

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कुछ दस्तावेज़ों के अनुसार, सितंबर 1857 में नाना मलेरिया बुख़ार से ग्रसित हो गए. पर ये तथ्य भ्रामक है क्योंकि रानी लक्ष्मी बाई, तांत्या टोपे और राव साहेब ने 1858 में ग्वालियर में नाना को अपना पेशवा स्वीकार कर लिया था. 1859 में नाना साहेब नेपाल चले गए थे. 1860 में अंग्रेज़ों को नाना और उनकी पत्नियों के नेपाल में होने की जानकारी मिल गई. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि नेपाल में रहने के दौरान ही शिकार के दौरान नाना साहेब बाघ के हमले के शिकार हो गए. अगर ऐसा है तो 1860 में ब्राहम्ण वेंकटेश्वर ने अंग्रेज़ों के नेपाल में होने की ख़बर कैसे दी? तब वो ब्राहम्ण कौन था जो गुजरात के सीहोर में एक मंदिर में 46 साल तक दयानंद महाराज बन कर रह रहा था?

किसी की ज़िन्दगी इतनी सुलझी हुई और मृत्यु इतनी उलझी हुई हो सकती है, इस पर यक़ीन करना मुश्किल है.

1970 के दशक में केशवलाल मेहता (नाना साहेब के पोते) के घर से 3 दस्तावेज़ पाए गए. उन दस्तावेज़ों में से दो दस्तावेज़ों पर स्वंय नाना साहेब के हस्ताक्षर थे. ये दोनों पत्र नाना ने अपने गुरू हर्षराम मेहता और उनके भाई कल्याणजी मेहता को लिखे थे. कल्याणजी ने नाना साहेब की अंग्रेज़ों से बचने में सहायता की थी. कल्याणजी की डायरी भी यही कहती है कि किस तरह नाना साहेब गुजरात आए थे. डायरी के अनुसार, नानाजी की मृत्यु 1903 में हुई.

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एक कहानी ये भी:

1953 के एक हिन्दी समाचार पत्र के अनुसार, नाना साहेब 1926 तक जीवित थे. ये दावा किया था, बाजीराव ऊर्फ़ सूरज प्रताप ने, जो ख़ुद को पेशवा नाना साहेब के पौत्र बता रहे थे. इतिहासकारों ने नाना की मृत्यु की कोई और तारीख़ बताई थी. सूरज प्रताप उत्तर प्रदेश असेंबली के स्पीकर ए.जी.खेर से मिले और उन्हें अज़ीमुल्लाह खान की डायरी का हिन्दी अनुवाद सौंपा. डायरी के अनुसार, नाना साहेब 1857 की लड़ाई के बाद नेपाल में छिपे थे, पर उनकी मृत्यु वहां नहीं हुई. अंग्रेज़ों को चकमा देने के लिए उन्हें ग़लत जानकारी दी गई थी. अज़ीमुल्लाह खान की डायरी के अनुसार, नाना अपने तीन बेटों के साथ प्रतापगढ़ गए, उनके सबसे छोटे बेटे ने एक कायस्थ कन्या से विवाह भी किया. उस डायरी के अनुसार, नाना की मृत्यु गोमती के किनारे सीतापुर में सन् 1926 में हुई.

अंग्रेज़ों ने नाना की खोज तो छोड़ दी, पर हम भारतीयों के पास भी उनकी मृत्यु का कोई सही दस्तावेज़ मौजूद नहीं हैं