अवतार सिंह संधु उर्फ़ पाश…
अक़सर हम किसी भी लेखक या कवि के नाम और काम के साथ एक भाषा जोड़ देते हैं. जैसे किसी के नाम के साथ अंग्रेज़ी लेखक या किसी के नाम के साथ हिन्दी के कवि. पाश अलग हैं. वो न तो पंजाब के कवि हैं, न हिन्दी के, वो क्रान्ति के कवि हैं.
6 नवंबर, 1950 को पंजाब के जालंधर के एक गांव में जन्में पाश. एक ऐसा कवि, जिसकी तुलना भगत सिंह और चंद्रशेकर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों से की जाती है.
‘नक्सलवादी क्रांति’ के बीच पाश बड़े हुए. उस दौर में ज़मीनदारों, उद्योगपतियों, व्यापारियों के शोषण के खिलाफ़ आवाज़ें उठ रही थीं. 15 साल की उम्र से ही कविताएं लिखने लगे थे पाश और उनकी पहली कविता 1967 में प्रकाशित हुई.
अपनी कविताओं के शुरुआती दौर में ही पाश भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए. उन्हें नक्सलवादी राजनीति से सहानुभूति थी.
1985 में पाश अमेरिका गए और वहां एंटी 47 पत्रिका का प्रकाशन किया. उन्होंने इसके ज़रिए खालिस्तानी आंदोलन के खिलाफ़ प्रचार अभियान की शुरुआत की.
इसके अलावा उन्होंने ‘सिआड’, ‘हेम ज़्योति’ और हस्तलिखित ‘हाक’ पत्रिका का भी संपादन किया.
पाश ने पंजाबी में चार काव्य संग्रह प्रकाशित किए, लौह कथा, उड्डदे बाजां मगर, साडे समियां विच और लडांगे साथी प्रकाशित किए.
महान क्रान्ति के कवि पाश की 23 मार्च, 1988 को खालिस्तानी आतंकवादियों ने हत्या कर दी. 23 मार्च को ही अंग्रेज़ों ने भगत सिंह को फांसी दी थी.
पाश की कुछ कविताएं जिनमें से आती है मिट्टी, गांव और भारत की ख़ुशबू:
1. सबसे ख़तरनाक
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक़्त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है
सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता
सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती.
2. 23 मार्च
उसकी शहादत के बाद बाक़ी लोग
किसी दृश्य की तरह बचे
ताज़ा मुंदी पलकें देश में सिमटती जा रही झांकी की
देश सारा बच रहा बाक़ी
उसके चले जाने के बाद
उसकी शहादत के बाद
अपने भीतर खुलती खिड़की में
लोगों की आवाज़ें जम गयीं
उसकी शहादत के बाद
देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोगों ने
अपने चेहरे से आंसू नहीं, नाक पोंछी
गला साफ़ कर बोलने की
बोलते ही जाने की मशक की
उससे सम्बन्धित अपनी उस शहादत के बाद
लोगों के घरों में, उनके तकियों में छिपे हुए
कपड़े की महक की तरह बिखर गया
शहीद होने की घड़ी में वह अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह वह निस्तेज न था
3. क़ैद करोगे अंधेरे में
क्या-क्या नहीं है मेरे पास
शाम की रिमझिम
नूर में चमकती ज़िंदगी
लेकिन मैं हूं
घिरा हुआ अपनों से
क्या झपट लेगा कोई मुझ से
रात में क्या किसी अनजान में
अंधकार में क़ैद कर देंगे
मसल देंगे क्या
जीवन से जीवन
अपनों में से मुझ को क्या कर देंगे अलहदा
और अपनों में से ही मुझे बाहर छिटका देंगे
छिटकी इस पोटली में क़ैद है आपकी मौत का इंतज़ाम
अकूत हूं सब कुछ हैं मेरे पास
जिसे देखकर तुम समझते हो कुछ नहीं उसमें
4. सपने
हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोई आग के सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुई
हथेली को पसीने नहीं आते
शेल्फ़ों में पड़े
इतिहास के ग्रंथों को सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाज़मी है
झेलनेवाले दिलों का होना
नींद की नज़र होनी लाज़मी है
सपने इसलिए हर किसी को नहीं आते
5. हमारे लहू को आदत है
हमारे लहू को आदत है
मौसम नहीं देखता, महफ़िल नहीं देखता
ज़िन्दगी के जश्न शुरू कर लेता है
सूली के गीत छेड़ लेता है
शब्द हैं कि पत्थरों पर बह-बहकर घिस जाते हैं
लहू है कि तब भी गाता है
ज़रा सोचें कि रूठी सर्द रातों को कौन मनाए ?
निर्मोही पलों को हथेलियों पर कौन खिलाए ?
लहू ही है जो रोज़ धाराओं के होंठ चूमता है
लहू तारीख़ की दीवारों को उल्लांघ आता है
यह जश्न यह गीत किसी को बहुत हैं —
जो कल तक हमारे लहू की ख़ामोश नदी में
तैरने का अभ्यास करते थे.
क्रान्ति का कवि आज नहीं है, लेकिन उनकी कविताएं हमेशा रहेंगी.