‘दोस्ती’ जिसके बारे में जितना लिखा जाए, कहा जाए, पढ़ा जाए वो कम है. कितने ही लोग ‘दोस्ती’ को ही अपनी ज़िंदगी बताते हैं. जहां से मानव इतिहास की शुरुआत होती है, वहीं से दोस्ती की कहानी भी शुरू होती है. इंसानों ने रिश्ते बाद में बनाए, दोस्ती पहले से मौजूद थी.

इतने पुराने इस मानवी जज़्बात को इज़हार करने का तरीका भी बदला है, उसको निभाने के नियम क़ायदे में भी बदलाव आए हैं, जो कि एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. बहुत पीछे नहीं जाते हैं, कोई 10 साल पहले की बात है. 10 सालों के भीतर ही दोस्ती के कई उसूल बदल गए. हम ये नहीं कह रह हैं कि दोस्ती की गहराई बदल गई है, बस अंदाज़-ए-बयां बदल गया है.

आज से 10 साल पहले की दोस्ती और अब की दोस्ती में फ़र्क. दोस्ती अभी भी है, बस इज़हार का तरीका बदल गया है:

बधाईयां 

जब सोशल मीडिया हमारी ज़िंदगी पर हावी नहीं हुआ था. जब हम फ़ेसबुक पर Friendaversary के वीडियो नहीं शेयर किया करते थे, तब भी ‘Friendship Day’ मनाया जाता था. हां, तब हम ग्रीटिंग कार्ड बनाते थे. ख़ुद न बना पाएं, तो दुकान से ख़रीद कर देते थे. उसमें भी एक ख़ास बात ये होती थी कि सिर्फ़ फ़्रेंड को सस्ती वाली ग्रिटिंग्स दी जाती थी और बेस्ट फ़्रेंड को महंगी वाली. जैसे आज हम दोस्त के बर्थडे पर सिर्फ़ DP लगाते हैं, लेकिन बेस्टफ़्रेंड के लिए DP, Story, Post, Status…!

क्रश

जैसे ही ख़बर चली कि बिरादरी का एक दोस्त प्यार में पड़ गया है, सारे दोस्त ऐसे ख़ुश हो जाते थे जैसे ख़ुद बाप बनने वाले हों. प्लान्स बनते थे, चुटकियां ली जाती थीं, ‘FLAMES’ का चौसडर बिछता था. आज ये सब कितना आसान हो गया है, क्रश को एक रात फ़ेसबुक पर स्टॉक किया, पूरी जन्मकुंडली सामने आ जाती है. नंबर एक्चेंज करने के लिए भी तमाम तरह के APP मौजूद हैं. पहले Bluetooth का नाम बदल कर जुगाड़ चलाया जाता था.

खेल

शाम होते मोहल्ले के सारे बच्चे नज़दीक के ग्राउंड में दिखते थे, किसी के पास बल्ला होता था, कोई गेंद ले कर आता था तो किसी के घर पर विकेट पड़े होते थे. आज सबके पास स्मार्टफ़ोन होता है और एक दोस्त दूसरे दोस्त से PUBG पर कवर फ़ायर मांग रहा होता है.

अड्डा

वैसे तो किसी एक दोस्त का घर ही अड्डा हुआ करता था, लेकिन जैसे-जैसे सबको चाय-सिगरेट की लत लगती जाती है, वो अड्डा घर से चाय की दुकान में तब्दील हो जाता है. वहीं दोस्त जब ज़िंदगी दूसरे कामों में व्यस्त होते गए, तो आज Chai-Sutta WhatsApp ग्रुप में मिला करते हैं.

फ़िल्म

बहुत कम होता है जब ग्रुप में सिर्फ़ दो लोग ही दोस्त हों, दोस्तों की मंडली होती है. और जब वो मंडली साथ बैठती थी तो उनकी फ़ेवरेट फ़िल्म होती थी दिल चाहता है, रंग दे बसंती. आज भी ऐसा होता है लेकिन अब ‘दिल चाहता है’ की जगह ‘प्यार का पंचनामा और ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ देखी जाती है.

गिफ़्ट

‘कुछ कुछ होता है’ से ये ट्रेंड शुरु हुआ था. फ़्रैंडशिप डे के दिन एक-दूसरे को बैंड दिया जाने लगा. बहुत दिनों तक ये चलता रहा फिर मीम का चलन आ गया और ‘Tag That Freind’ ने काम को बहुत आसान कर दिया. इस मीम के ज़रिए बकाया पार्टी भी मांग ली जाती है. कंजूस दोस्त को एक्सपोज़ भी कर दिया जाता है और बातों का सिलसिला भी चलता रहता है.

फ़ोन

स्मार्टफ़ोन से कुछ पहले, जब लैंडलाईन का ज़माना था. दोस्तों के फ़ोन नंबर ज़बानी याद होते थे. एक सांस में दस फ़ोन नंबर बोल जाया करते थे. अभी इसकी ज़रूरत नहीं है. एक ही दोस्त के पास चार फ़ोन नंबर होते हैं एक इंसान कितने नंबर याद रख पाएगा.

यादें

घर वालों के साथ कहीं घूमने गए, कुछ ख़रीदारी की, तब कोई छोटी सी चीज़ ही सही हम अपने ख़ास दोस्त के लिए ज़रूर ख़रीद लेते थे. उस एहसास की कीमत पैसे और समझदारी से नहीं आंकी जा सकती. ये वक़्त होम डिलीवरी का है, दोस्त को कुछ भेजना है, तो ऑनलाईन आर्डर कर दो, सीधा उसके घर.

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