बचपन में एक कहानी पढ़ी थी, ‘गिल्लू’. नन्हा गिल्लू जिस तरह से लेखिका को मिला था, मैं अक्सर सोचती थी कि ऐसे ही कोई गिलहरी मुझे भी मिल जाये, मैं कहानी में दिए गए वर्णन के अनुसार ही उसका ख़्याल रखूंगी.
गिल्लू नहीं मिला. पर हर गिलहरी में मैं गिल्लू को ढूंढने लगी. पशुओं पर ज़्यादा ग़ौर करने लगी. प्रकृति पर कविता करने की इच्छा सुमित्रानंदन पंत ने जगाई थी और पशुओं पर कहानी करने की इच्छा ‘आधुनिक मीरा’, महादेवी वर्मा ने जगा दी.
हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री और लेखिका, महादेवी. साहित्य के लिए वो किसी देवी से कम नहीं. उचित नाम है उनका, ‘महादेवी’.
फिर एक और कहानी ज़िन्दगी में आई, ‘सोना’, जिसका अंत अप्रिय था. लेकिन हिरण इतना प्यारा जीव है, ये भी महादेवी वर्मा ने ही हमें बताया.
महादेवी वर्मा का जन्म, 26 मार्च, 1907 को फ़र्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ. जिस परिवार में उनका जन्म हुआ, उसमें तक़रीबन 200 वर्ष बाद किसी पुत्री का जन्म हुआ था, इसलिये नाम भी अनोखा रखा गया, महादेवी. बचपन से ही उनके मन में दूसरे जीवों के प्रति करुणा भाव था. वो अपना अधिकतर समय पशु-पक्षियों के बीच ही खेल-कूद में बितातीं.
7 वर्ष की आयु से ही कवितायें लिखने लगीं थीं, महादेवी जी. 1925 में मैट्रिक की परिक्षा उत्तीर्ण करते-करते वो एक सफ़ल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं.
महात्मा गांधी से काफ़ी प्रभावित थीं महादेवी. कॉलेज के दिनों में महादेवी और सुभद्रा कुमारी चौहान के बीच गहरी दोस्ती थी.
महादेवी वर्मा का विवाह 1916 में मात्र 9 वर्ष की आयु में कर दिया गया था. इस संबंध में वो स्वंय लिखती हैं,
दादा ने पुण्य लाभ से विवाह रच दिया, पिता जी विरोध नहीं कर सके. बारात आयी तो बाहर भाग कर हम सबके बीच खड़े होकर बारात देखने लगे. व्रत रखने को कहा गया तो मिठाई वाले कमरे में बैठ कर ख़ूब मिठाई खाई. रात को सोते समय नाइन ने गोद में लेकर फेरे दिलवाये होंगे, हमें कुछ ध्यान नहीं है. प्रात: आंख खुली तो कपड़े के गांठ लगी देखी तो उसे खोल कर भाग गई.
वो पति-पत्नी के संबंध को कभी स्वीकार नहीं कर सकीं, कारण पता नहीं. इस विषय में उन्हें कई तरह की आलोचनाएं भी सहनी पड़ी.
विद्रोह और सौम्यता का एक अनोखा मेल हैं, महादेवी. आज पढ़िए उनकी कुछ कविताएं जिनमें हर तरह के भाव मिलते हैं-
1. मैं नीर भरी दुख की बदली!
स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
क्रन्दन में आहत विश्व हंसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली.
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना
पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
2. जाग तुझको दूर जाना!
चिर सजग आंखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!
अचल हिमगिरि के हॄदय में आज चाहे कम्प हो ले!
या प्रलय के आंसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;
आज पी आलोक को ड़ोले तिमिर की घोर छाया
जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश पथ पर चिन्ह अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!
बांध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल दे दल ओस गीले?
तू न अपनी छांह को अपने लिये कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!
वज्र का उर एक छोटे अश्रु कण में धो गलाया,
दे किसे जीवन-सुधा दो घंट मदिरा मांग लाया!
सो गई आंधी मलय की बात का उपधान ले क्या?
विश्व का अभिशाप क्या अब नींद बनकर पास आया?
अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
जाग तुझको दूर जाना!
कह न ठंढी सांस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी;
हार भी तेरी बनेगी माननी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियां बिछाना!
जाग तुझको दूर जाना!
3. जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आंसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार
हंस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग
आंखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार
4. अधिकार
वे मुस्काते फूल, नहीं
जिनको आता है मुर्झाना,
वे तारों के दीप, नहीं
जिनको भाता है बुझ जाना;
वे नीलम के मेघ, नहीं
जिनको है घुल जाने की चाह
वह अनन्त रितुराज,नहीं
जिसने देखी जाने की राह.
वे सूने से नयन,नहीं
जिनमें बनते आंसू मोती,
वह प्राणों की सेज,नही
जिसमें बेसुध पीड़ा सोती;
ऐसा तेरा लोक, वेदना
नहीं,नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं, नहीं
जिसने जाना मिटने का स्वाद!
क्या अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करुणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार!
5. मैं बनी मधुमास आली!
आज मधुर विषाद की घिर करुण आई यामिनी,
बरस सुधि के इन्दु से छिटकी पुलक की चाँदनी
उमड़ आई री, दृगों में
सजनि, कालिन्दी निराली!
रजत स्वप्नों में उदित अपलक विरल तारावली,
जाग सुक-पिक ने अचानक मदिर पंचम तान लीं;
बह चली निश्वास की मृदु
वात मलय-निकुंज-वाली!
सजल रोमों में बिछे है पांवड़े मधुस्नात से,
आज जीवन के निमिष भी दूत है अज्ञात से;
क्या न अब प्रिय की बजेगी
मुरलिका मधुराग वाली?
6. अब यहां चिड़िया कहां रहेगी
आंधी आई जोर शोर से,
डालें टूटी हैं झकोर से।
उड़ा घोंसला अंडे फूटे,
किससे दुख की बात कहेगी!
अब यह चिड़िया कहां रहेगी?
हमने खोला आलमारी को,
बुला रहे हैं बेचारी को.
पर वो चीं-चीं कर्राती है
घर में तो वो नहीं रहेगी!
घर में पेड़ कहां से लाएं,
कैसे यह घोंसला बनाएं!
कैसे फूटे अंडे जोड़े,
किससे यह सब बात कहेगी!
अब यह चिड़िया कहां रहेगी?
7. मै अनंत पथ में लिखती जो
मै अनंत पथ में लिखती जो
सस्मित सपनों की बाते
उनको कभी न धो पायेंगी
अपने आंसू से रातें!
उड़् उड़ कर जो धूल करेगी
मेघों का नभ में अभिषेक
अमिट रहेगी उसके अंचल-
में मेरी पीड़ा की रेख!
तारों में प्रतिबिम्बित हो
मुस्कायेंगी अनंत आंखें,
हो कर सीमाहीन, शून्य में
मंडरायेगी अभिलाषें!
वीणा होगी मूक बजाने-
वाला होगा अंतर्धान,
विस्मृति के चरणों पर आ कर
लौटेंगे सौ सौ निर्वाण!
जब असीम से हो जायेगा
मेरी लघु सीमा का मेल,
देखोगे तुम देव! अमरता
खेलेगी मिटने का खेल!
8. क्या पूजन क्या अर्चन रे!
उस असीम का सुंदर मंदिर मेरा लघुतम जीवन रे!
मेरी श्वासें करती रहतीं नित प्रिय का अभिनंदन रे!
पद रज को धोने उमड़े आते लोचन में जल कण रे!
अक्षत पुलकित रोम मधुर मेरी पीड़ा का चंदन रे!
स्नेह भरा जलता है झिलमिल मेरा यह दीपक मन रे!
मेरे दृग के तारक में नव उत्पल का उन्मीलन रे!
धूप बने उड़ते जाते हैं प्रतिपल मेरे स्पंदन रे!
प्रिय प्रिय जपते अधर ताल देता पलकों का नर्तन रे!
महादेवी वर्मा की कौन सी कविता आपको सबसे प्रिय है ये कमेंट बॉक्स में बतायें.