ये कविता घर की याद दिला देगी.

जहां देखे थे अनगिनत सुनहरे सपने,

जहां न था डर न थी हिचकिचाहट

वो जो था कुछ और नहीं,

वो मेरे पापा का घर था.

घर… जहां हम अपनी पूरी ज़िन्दगी की कच्ची स्केच बना लेते हैं. जहां हम अपनी छाप छोड़ने के ख़्वाब देख लेते हैं. लेकिन उम्र के एक पड़ाव के बाद ये घर छूट जाता है. सपनों को पाने के लिए हम शहर बदलते हैं और बदल जाता है हमारा घर.

ज़िन्दगी में कई घर आते हैं, एक वो घर जहां मम्मी-पापा हैं, एक वो घर जो यूं तो पीजी/हॉस्टल है पर उसे हम घर बना लेते हैं, एक वो घर जहां हम आने वाली ख़ुशनुमा ज़िन्दगी के सपने देखते हैं किसी एक ख़ास इंसान के साथ. ऐसे ही कई घर आते हैं ज़िन्दगी में.

घर यानि कि वो जगह जहां हमें अपनापन महसूस हो, उसी अपनेपन वाली चारदीवारी पर राकेश तिवारी ने लिखी है एक कविता.

कविता के कुछ अंश:

यहां सुनिये पूरी कविता:

घर से दूर रहने वाले इस कविता के एक-एक शब्द को महसूस कर सकेंगे. इन जनाब ने गांव के घर की याद दिला दी.