महान व्यंग्यकार, हरिशंकर परसाई ने दशकों पहले हमें ‘व्यंग्य मोड’ में ही आवारा भीड़ के ख़तरों के बारे में आगाह कर दिया था. गुज़रते वक़्त के साथ परसाई जी द्वारा जताई गई आशंकाएं सच साबित हो रही हैं. कभी अफ़वाह के आधार पर, तो कभी बग़ैर किसी कारण के ही भीड़ द्वारा लोगों को बेरहमी से मार दिया जा रहा है.


अख़लाक़, तबरेज़, पहलू ख़ान, निलोत्पल दास, अभिजीत नाथ… ये कुछ नाम हैं. लिस्ट काफ़ी लंबी है. जानकर थोड़ा ग़म मना लीजिए कि निलोत्पल और अभिजीत पिकनिक मनाने गए थे और उन्हें बच्चा चोर समझ लिया गया. अख़लाक़ की हत्या के लिए तो स्पीकर से घोषणा हुई थी!    

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लिचिंग या भीड़ द्वारा हत्या पर नवीन चौरे उर्फ़, ‘मुक़म्मल’ ने एक कविता पढ़ी.


The Habitat Studios के मंच पर ‘मुक़म्मल’ ने वोट देने वाली उंगली को बेरहमी से शरीर से काट कर फेंके जाने का ऐसा मार्मिक वर्णन किया कि सुनने वालों में सन्नाटा सा छा गया.  

मुक़म्मल ने अपने वाक्यों द्वारा बेहद वाजिब सवाल भी उठाया-


‘कीजिए इस पर बहस अब पैनलों में बैठकर
क्या हुआ मोहन का वादा, है कहां अंबेडकर?
सब बराबर हैं अगर तो बस मुझे ही क्यों चुना?
तुम बताओ कौन देगा घर को मेरे रोटियां
असलियत से बेख़बर हो शहरी हो, दिल्ली से हो…’ 

सोचने वाली बात तो है कि ‘जम्हूरियत’ यानी लोकतंत्र के लिए उस कटी उंगली पर लगा निशान कितना ज़रूरी है, जो ऐसे ही सड़क पर ख़ून से लतपथ पड़ा है.