एक सवाल कई बार हममें से कई लोगों के मन में आता होगा. वो कौन सी शक्ति होती है जो किसी व्यक्ति को सबकुछ छोड़कर, अपनी ज़िन्दगी की परवाह किए बिना देश सेवा में लग जाने को प्रेरित करती है? कुछ अलग ही होती होंगी वो संतानें, जो अपनी निजी ज़िन्दगी भुला कर, देश की सुरक्षा का दायित्व उठाते हैं. 

उतनी ही महान होती हैं वो पत्नियां जिन पर वो पूरे घर की ज़िम्मेदारी छोड़कर सीमा पर जाते हैं. कैसा होता होगा किसी भी आर्मीवाले की पत्नी का जीवन? सलमा शफ़ीक़ घोरी ने The Pink Revolution के ज़रिए शेयर की है अपनी कहानी, जिनके पति आतंकियों से लड़ते हुए 2001 में शहीद हो गए. 

‘मैं 19 साल की थी जब 1991 में कैप्टन शफ़ीक़ घोरी से मेरी शादी हुई. शुरुआत में इस बात को मानने में काफ़ी दिक्कत हुई कि कई दिनों तक उनके बिना मुझे अकेले रहना होगा, पर वो मुझे समझाते कि आर्मीवाले की पत्नी होना क्या होता है. उस वक़्त मोबाईल फ़ोन्स नहीं हुआ करते थे. मैं घंटों फ़ोन के पास बैठी रहती, इस बात से बेख़बर कि फ़ोन आएगा भी या नहीं. हम एक-दूसरे को चिट्ठियां लिखा करते थे. मेरे पति ने ये सुनिश्चित किया था कि जितने दिन वो दूर रहें, मुझे रोज़ उनकी एक चिट्ठी मिले. मैं उनके सामान में छोटे-छोटे नोट्स छिपाती थी.


बीतते वक़्त के साथ उनकी पोस्टिंग High-Risk जगहों पर होन लगी. उस दौर में पंजाब और आस-पास के क्षेत्रों में पोस्टिंग सुरक्षित नहीं थी. वो त्रिपुरा, पंजाब और श्रीनगर में सर्व कर चुके थे. वो कई दिनों तक घर नहीं आते थे, पर तब तक मैंने अपना और बच्चों का ख़्याल रखना सीख लिया था. मुझे पता चल गया था कि उनके लिए देश सबसे पहले है और उनकी पत्नी और बच्चे दूसरे नंबर पर.

1999 में श्रीनगर में उनकी फ़ील्ड पोस्टिंग हुई. क्योंकि वो एक High-Risk एरिया था इसलिए परिवार को लाना Allowed नहीं था, इसलिए हम बेंगलुरू शिफ़्ट हो गए. 28 जून, 2001 को हमने आख़िरी बार बात की. उन्होंने हमारा हाल-चाल पूछा और बताया कि वो जंगलों में मिलिट्री ऑपरेशन के लिए जा रहे हैं. वे बच्चों से बात करना चाह रहे थे पर बच्चे Cousins के साथ खेल-कूद में व्यस्त थे, घर पर काफ़ी शोर हो रहा था. मैंने उन्हें Base पर आकर उनसे बात करने को कहा. मुझे आज भी उस निर्णय का पछतावा है.

1 जुलाई, 2001 को शाम के क़रीब 6:30 बजे, कुछ आर्मी अफ़सर उनकी पत्नियों के साथ आए. एक महिला ने मुझे बैठाया और बताया, 
‘मेजर शफ़ीक़ घोरी ऑपरेशन रक्षक में चरमपंथियों से लड़ते हुए शहीद हो गए हैं.’ 

मुझे लगा सब कुछ बिख़र गया. उस दिन मुझे उनका आख़िरी ख़त मिला. अगले दिन मैं एयरपोर्ट पर उन्हें आख़िरी बार लेने गई. इस बार वो एक बॉक्स में तिरंगे में लिपटकर आए थे. मैं रो पड़ी. वो मुझे हमेशा Strong रहने के लिए कहते थे. मुझे उनसे हुई आख़िरी बातचीत याद आ गई.

मुझे उनकी यूनिफ़ॉर्म और Civil Clothes एक बॉक्स में मिले. मैंने उन्हें 8 सालों तक नहीं धोया. मैं वो एहसास मिटाना नहीं चाहती थी. उनके पर्स में पैसे थे. मैं अब भी उनके ख़त पढ़ती हूं. मैं अपने बच्चों के लिए माता और पिता दोनों बनी, पर कभी-कभी दूसरे बच्चों को उनके माता-पिता के साथ खेलते देख कर आंसू रोकना मुश्किल हो जाता है. आज मैं कर्नाटक के शहीदों के परिवारों और उनकी पत्नियों के सशक्तिकरण के लिए काम करती हूं.

मैं 29 की थी, जब मेजर शफ़ीक़ घोरी शहीद हुई. लोगों ने मुझे ज़िन्दगी में आगे बढ़ने को कहा… पर मैं हमेशा उनकी थी, हूं और उन्हीं की रहूंगी.’

सलमा की आपबीती पर लोगों की प्रतिक्रिया:

मैंने कई बार Long Distance Relationship में रहने वालों को, Distance की वजह से चिढ़ते देखा है. वो एक शहर में या एक घर में क्यों नहीं हैं, ऐसी शिकायतें सुनी हैं. जिनके पति/प्रेमी सेना में काम करते हैं, उनके बारे में सोचकर आज सर सम्मान में झुक रहा है. सच है वतन के लिए लड़ना, जान हथेली पर रखकर चलना हर किसी के बस की बात नहीं प,र ये भी सच है कि अपने पति को सीमा पर भेजने की क्षमता हर किसी में नहीं होती.