हम अकसर जो करते हैं, वो ही बच्चे सीखते हैं. हमारे समाज में लड़कों और लड़कियों की परवरिश अलग-अलग तरीके से की जाती है. हम मानें या न मानें, लेकिन फ़िल्मों में, घरों में, कुछ किताबों में लड़कों को लड़कियों से बेहतर बताया जाता है. लड़कियों पर लड़कों से ज़्यादा पाबंदी लगाई जाती है. उनके लिए रात का वक़्त असुरक्षित होता है, जबकी लड़कों के लिए वो वक़्त किसी और वक़्त की तरह ही होता है. समाज वाले भी लड़कों का पक्ष लेने से पीछे नहीं हटते.
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हम बेटी बचाओ का नारा लगाते हैं, लेकिन इसी चक्कर में अपने बेटों के भविष्य को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं.
हम समानता की बात नहीं कर रहे और शायद आज इसी की समाज में ज़रूरत है. समाज में बढ़ते गुनाह शायद कुछ कम हो जाएं अगर हम आज से अपनी बेटियों के साथ बेटों को और उनकी सोच को बचाना शुरू कर दें.
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