भारत सरकार ने भले ही 2014 में ट्रांसजेंडर्स को तीसरे लिंग की मान्यता दे दी हो, लेकिन आज भी उन्हें समाज में आम लोगों की तरह इज्ज़त की निगाहों से नहीं देखा जाता. सम्मान तो बहुत दूर की बात भगवान का दर्जा पाने वाले डॉक्टर्स भी उनका इलाज करने के लिए राज़ी नहीं होते.

हाल ही में हुए एक सर्वे में ट्रांसजेंडर्स को लेकर कई चौंका देने वाले ख़ुलासे किए गए हैं. देश में ट्रांसजेंडर्स के साथ हो रहे भेदभाव को अपना अनुभव साझा करते हुए, Abhina Aher बताती हैं कि उसका एक ट्रांसजेंडर फ़्रैंड साउथ दिल्ली की एक प्राइवेट स्किन क्लीनिक में लेज़र ट्रीटमेंट के लिए गया था, तभी क्लीनिक में दूसरे मरीज़ को आता देख कर, डॉक्टर ने उससे टॉयलेट में छिपने की सलाह दी. Abhina Aher एक ट्रांसजेंडर ऐक्टिविस्ट हैं, जो कि दिल्ली स्थित Non-Governmental Organisation, HIV/AIDS Alliance के लिए काम करती हैं. Aher बताती हैं कि रिपोर्ट में पाया गया है कि दुर्लभ स्थिति होने पर भी डॉक्टर्स ने ट्रांसजेंडर मरीज़ो का चेकअप करने से मना कर दिया. यहां तक कि बुखार होने पर भी डाक्टर्स ने उन लोगों से प्राइवेट पार्ट्स के जांच की मांग रखी.

भारत में करीब 4.9 लाख ट्रांसजेंडर्स रहते हैं, ट्रांसजेंडर्स के साथ होने वाले भेदभाव से Transphobia शब्द की उत्पत्ति हुई. मामले को लेकर United States के Berkeley स्थित Stanford University और University of California ने कोलकाता की Non-Profit, Civilian Welfare Foundation के साथ मिलकर एक रिसर्च किया. Transphobia का पता लगाने के लिए भारत के पांच प्रमुख शहरों के 300 डॉक्टर्स का चुनाव किया गया.

ट्रांसजेंडर्स के साथ भेदभाव की तमाम शिकायत मिलने के बाद अक्टूबर 2016 में ये अध्यन किया गया. Civilian Welfare Foundation के संस्थापक और ट्रान्सफ़ोबिया अध्ययन में तीन प्रमुख शोधकर्ताओं में से एक Shuvojit Moulik कहते हैं कि समुदाय ने शिकायत करते हुए बताया कि डॉक्टर्स काफ़ी अजीबो-गरीब वक़्त पर उन्हें चेकअप के लिए बुलाया, जैसी की एक सुबह, दोपहर में लंच के वक़्त या फिर देर रात, जब क्लीनिक में कुछ ही मरीज़ मौजूद होते थे.

देश में ट्रांसजेंडर्स के साथ बेहद बड़े लेवल पर भेदभाव हो रहा है. Moulik बताते हैं कि अध्यन में भाग लेने वाली और गैंगरेप का शिकार हुई एक ट्रांसजेंडर, जब चेकअप के लिए डॉक्टर के पास पहुंची, तो उसका इलाज करने के बजाए डॉक्टर ने उसका मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि ‘तुम्हारे साथ गैंगरेप कैसे हो सकता है?’ आगे बताते हुए Moulik कहते हैं कि डॉक्टर Post-Exposure Prophylaxis लिखने में भी विफ़ल रहे, जो कि यौन हिंसा का शिकार हुए लोगों को 72 घंटे के भीतर एचआईवी की रोकथाम के लिए दी जाती है. इस अध्यन में पाया गया कि साल 2015 में 42 में से 16 ट्रांसजेंडर मरीज़ ऐसे थे, जिन्हें उपचार के दौरान डॉक्टर्स की न सुननी पड़ी.

समलैंगिकता, समलैंगिक, उभयलिंगी और ट्रांसजेंडर समुदाय की समस्याओं पर काम करने वाले मुंम्बई स्थित Non-Profit The Hamsafar Trust के कार्यकर्ता Shruta Amit Rawat बताते हैं कि ‘एक ट्रांसवुमेन सरकारी अस्पताल में डॉक्टर से बुखार की दवा लेने के लिए गई, लेकिन डॉक्टर ने उसे ग़ैर मर्दों से यौन संबंध बनाने को लेकर डांट दिया. इसके बाद वो डॉक्टर दूसरे मरीज़ की जांच के लिए आगे बढ़ गई और नर्स ने दूरी बनाए रखते हुए, उसे Prescription का पर्चा थमा दिया.

Rawat ने एक अध्यन का आयोजन किया, जिसका शीर्षक था ‘शक्ति.’ अध्यन के दौरान उन्होंने 18 ट्रांसजेंडर्स से मुलाकात की और उन्होंने पाया कि ये लोग HIV को एक कलंक समझते हैं. इसके साथ ही मुंबई के 10 अस्पतालों के 132 डॉक्टर्स पर रिसर्च किया गया और देखा गया कि चेकअप के दौरान डॉक्टर्स ट्रांसजेंडर्स से नॉर्मल तरीके से पेश नहीं आते. ट्रांसजेंडर्स को डॉक्टर्स वैसा ट्रीटमेंट नहीं देते, जैसा कि वो एक आम मरीज को देते हैं. हांलाकि इस अध्यन को अब तक प्रकाशित नहीं किया गया है.

कोलकाता की Transwoman Samira बताती हैं, ‘मैं एचआईवी परीक्षण के लिए सरकारी अस्पताल गई हुई थी. मुझे देखने के बजाए डॉक्टर उसकी असिटेंट मुझ पर हंसते हुए कहने लगे कि अरे ये सब बीमारी तुम्हें नहीं होगा, तो किसको होगा.’

Aher के मुताबिक, एचआईवी पीड़ित ट्रांसजेंडर के साथ डॉक्टर्स का बर्ताव और बुरा हो जाता है, उन्हें पहले से ज़्यादा ज़िल्लत झेलनी पड़ती है.

Moulik, Rawat और Aher तीनों का मानना है कि जानें अनजाने में डॉक्टर्स इस समुदाय के लोगों से ये भी नहीं पूछते कि वो मेल या फ़ीमेल किस वार्ड में जाना चाहते हैं.

चेन्नई स्तिथ रिसर्च एजेंसी Centre For Sexuality And Health Research Policy के चेयरपर्सन Venkatesan Chakrapani का कहना है, ‘मैं इस समुदाय के लोगों के लिए अस्पतालों में एक अलग वार्ड बनाने की मांग करता हूं.’

वहीं कर्नाटक सरकार ने पूरे राज्य के अस्पतालों में ट्रांसजेंडर्स के लिए अलग-अलग वार्ड बनाने का आदेश दिया है. शोध में पाया गया कि सरकारी अस्पतालों में तिरस्कार और निजी अस्पतालों की फ़ीस ज़्यादा होने की वजह से इस ख़ास समुदाय के लोग, बिना लाइसेंस वाले डॉक्टर्स के पास जाने को मजबूर हैं. Padmashali बताते हैं कि कभी-कभी, तो नौबत यहां तक आ जाती है कि इन लोगों को अपने स्वास्थ्य की अनदेखी कर ख़ुद से ही दवा लेनी पड़ती है.

सर्वेक्षण में पाया गया कि 300 Transwomen 37 प्रतिशत जनसंख्या एल्कोहल का सेवन करती हैं, जो कि बाइलॉजिकल महिलाओं की तुलना में काफ़ी ज़्यादा है.

ट्रांसजेंडर्स के साथ हो रहे भेदभाव को लेकर विस्तार से अध्यन होना अभी बाकी है. जिन डॉक्टर्स को धरती पर भगवान का दर्जा दिया गया है, अगर वही लोगों के साथ भेदभाव करेंगे, तो फिर सब में और उनमें फ़र्क ही क्या रहा?