आदिवासियों की जीवनशैली काफ़ी सरल होती है. वे प्रकृति के ज़्यादा करीब हैं. प्रकृति से उनका रिश्ता मां-बेटे का है. वे प्रकृति से उतना ही लेते हैं, जितनी उन्हें ज़रूरत है. वे पेड़-पहाड़ को देवता के समान मानते हैं. उनकी ज़िन्दगी प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है. ये फलदार पेड़ व कंद-मूल उनके भूख के साथी हैं. वैसे जंगल और पहाड़ी प्रकृति प्रेमियों, फ़ोटोग्राफरों और सैलानियों के आकर्षण के केन्द्र रहे हैं. लेकिन ये ही वे इलाके हैं जहां आदिवासी समाज रहता है. इन्हीं जंगलों में रहने वाले आदिवासियों ने तमाम तरह के पेड़ पौधे और फलों, पत्तों के गुणधर्मों की खोज की है और उन्हें विकसित किया है. इससे उनके जीवन पर भी ख़ूब असर पड़ा है.
ये उन पेड़-पौधों को अपने भोजन के रूप में शामिल करते हैं और अपने जीवन को और निखारते हैं. आंकड़ों की बात करें, तो जहां हमारी जीवन प्रत्याशा दर 67 साल है, वहीं आदिवासियों की जीवन प्रत्याशा दर 85-90 साल है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आदिवासी समाज जंगल से प्राप्त संसाधनों को अपने भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं. आइए, जानते हैं उनके भोजन के बारे में.
झारखंड के धनबाद जिले के रहने वाले दिलीप तिर्की कहते हैं धरती अब हमारा समर्थन नहीं कर सकती. फूलों के खिलने के चक्र की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. मछली पकड़ने के लिए समुद्र में और आगे जाना पड़ता है.
छत्तीसगढ़ के लोकनाथ नावरी कहते हैं कि जंगल हमारे बच्चों को भूख से बचाता है, इसलिये हम जंगल को बचाते है. वहां से हमें भाजी, कंद-मूल, फल-फूल और कई प्रकार के मशरूम मिलते हैं. जिन्हें या तो सीधे खाते हैं या हांडी में पका कर खाते हैं.
लिविंग फार्म के एक अध्ययन के अनुसार, भूख के दिनों में आदिवासियों के लिये यह भोजन महत्त्वपूर्ण हो जाता है. उन्हें 121 प्रकार की चीज़ें जंगल से मिलती हैं, जिनमें कंद-मूल, मशरूम, हरी भाजियां, फल, फूल और शहद आदि शामिल हैं. इनमें से कुछ खाद्य सामग्री साल भर मिलती है और कुछ मौसमी होती है.
आम, आंवला, बेल, कटहल, तेंदू, शहद, महुआ, सीताफल, जामुन, शहद मिलता है. कई तरह के मशरूम मिलते हैं. जावा, चकुंदा, जाहनी, कनकड़ा, सुनसुनिया की हरी भाजी मिलती है. पीता, काठा-भारा, गनी, केतान, कंभा, मीठा, मुंडी, पलेरिका, फाला, पिटाला, रानी, सेमली-साठ, सेदुल आदि कांदा (कंद) मिलते हैं.
आदिवासियों की भोजन सुरक्षा में जंगल और खेत-खलिहान से प्राप्त खाद्य पदार्थों को ही गैर खेती भोजन कहा जा सकता है. इनमें भी कई तरह के पौष्टिक पोषक तत्व हैं. इससे भूख और कुपोषण की समस्या दूर होती है. ख़ासतौर से जब लोगों के पास रोज़गार नहीं होता. हाथ में पैसा नहीं होता. खाद्य पदार्थों तक उनकी पहुंच नहीं होती. यह प्रकृति प्रदत्त भोजन सबको मुफ़्त में और सहज ही उपलब्ध हो जाता है. आइए जानते हैं आदिवासियों के पसंदीदा व्यंजनों के बारे में
आदिवासियों का देसी बियर सल्फी या ताड़ी है
छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचलों में सल्फी और देसी बियर ख़ास तौर पर पसंद किया जाता है. आदिवासी ताड़ के पेड़ पर मटकी बांध कर रखते हैं. पेड़ से टपकने वाले रस को जमा करते हैं और उसे वैसे ही पीते हैं.
माड़ी भी पीते हैं
जिस तरह ताड़ी होती है, ठीक उसी तरह से चावल से बनी बियर भी लोग ख़ास पसंद करते हैं. इसे माड़ी कहते हैं.
लाल चींटी की चटनी
छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचलों, खासकर बस्तर में आप जाएं तो लाल चींटियों की खट्टी, तीखी चटनी से आपका स्वागत जरूर होगा. ये चटनी खाने का स्वाद बढ़ाने के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए भी अच्छी होती है.
महुए के साथ कूटकर बनाते हैं कीड़े का लड्डू
उभिया एक प्रकार का पंखों वाला कीड़ा होता है, जो बारिश का मौसम शुरू होते ही आता है. पहाड़ी कोरवा इस कीड़े को उभिया कहते हैं जबकि छत्तीसगढ़ के ज्यादातर भूभाग में इसे बतर कीड़ा कहते हैं.आदिवासी इसे महुआ के साथ कूटकर लड्डू भी बनाते जिसे वे महूलाटा कहते है. स्वाद में मीठा होने की वजह से बच्चे महुलाटा को बहुत पसंद करते हैं.
यह सब न केवल भोजन की दृष्टि से बल्कि पर्यावरण और जैव विविधता की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं. समृद्ध और विविधतापूर्ण आदिवासी भोजन परम्परा बची रहे, पोषण सम्बन्धी ज्ञान बचा रहे, परम्परागत चिकित्सा पद्धति बची रहे, पर्यावरण और जैव विविधता का संरक्षण हो, यह आज की जरूरत है.