हरे पान के पत्ते पर लगा लाल कत्था, जिसकी रंगत मुंह में कुछ इस कदर घुली है, जो होंठों पर लाली की तरह उभर कर सामने आया है. और इस लाली के पीछे कहीं डूब चुके महंगे किमाम की वो तीखी खुशबू, जिसकी तरफ़ दिल न चाहते हुए भी बार-बार खिंचा चला जाता है.

शायद इसी खुशबू में डूब कर दिल्ली के शायर ‘ज़ोक’ ने कहा था कि ‘कमबख्त कौन जाये दिल्ली की वो तंग गलियां छोड़ कर.’ हालांकि दिल्ली की वो तंग गलियां पहले से ज़्यादा तंग हो गई हैं. हवाओं में पान की खुशबू की जगह सांप्रदायिकता का ज़हर घुल चुका है, जिसकी आड़ में कभी हिन्दुस्तानी ज़बान कही जाने वाली उर्दू आज अपने ही मुल्क में गैर सी हो गई है. आज भी अपने मुल्क में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो साम्प्रदायिकता के चश्मे से बाहर आ कर इसे अपनाये हुए हैं और ज़िन्दा रखने की कोशिश कर रहे हैं. 

ऐसे लोगों में एक नाम संजीव सराह का भी है, जिनकी कोशिशों से ही आज लोगों को एक बार फिर उर्दू के प्रति अपना प्यार दिखाने का मौका मिला हैं. ‘रेख़्ता’ के ज़रिये संजीव ने उन लोगों का तार्रुफ़ उर्दू से कराया, जो उर्दू से मोहब्बत तो करते हैं, पर लिपि की बाधाओं में बंध कर उसे पढ़ने से महरूम रह जाते हैं.

बात उर्दू की हो और दिल्ली का नाम न आये, ऐसा भी कभी हो सकता है. बेशक दिल्ली में पैदा हुई उर्दू ज़बान आज पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा है, पर इसे सींचा तो हमारे ही लोगों ने है. अपनी इसी ज़बान के सालाना जलसे के रूप में ‘रेख़्ता ‘ इस साल दिल्ली में अपनी तीसरी सालगिरह मना रहा है. जिसमें लोगों का हुजूम कुछ इस कदर उमड़ा, जिसे देख कर ऐसा लगा कि ‘उर्दू’ एक बेटी है, जिसकी शादी किसी ज़माने में ‘हिंदी’ से हुई है, और लोग अपनी इसी बेटी की सालगिरह पर उसे तैयार करने के लिए यहां इकट्ठा हुए हैं.

लिपियों में भले ही दोनों भाषायें एक-दूसरे की पूरक लगती हों, पर असलियत ये है कि ये दोनों हमारे बीच कुछ ऐसे रम गई है कि खुद हम भी इस बात से अंजान हैं कि हम कब उर्दू बोल रहे हैं और कब हिंदी.

हिंदुस्तानी ज़िन्दगी का नक़्श-निगार: प्रेमचन्द

रेख़्ता के दौरान एक सेमिनार में प्रेमचन्द पर बात करने के लिए इकट्ठा हुए मैनेजर पांडे, अब्दुल बिस्मिल्लाह और अलोक राय ने उनसे संबंधित कुछ ऐसी ही परतों को खोला, जिसे हम खुद पढ़ते वक्त कहीं भूल जाते हैं.

प्रेमचंद के बारे में ये तो हम सब जानते हैं कि उन्होंने उर्दू-हिंदी दोनों में लिखा, पर शायद ये नहीं जानते कि उन्होंने दोनों भाषाओं के जानकारों की समझ के हिसाब से लिखा. प्रेमचंद पर हुई बातों ने उनके किरदारों के चुनाव और उन किरदारों की भाषा की कुछ ऐसी खासियत से रूबरू कराया.

जब फ़िल्में उर्दू बोलती थीं

जब एक ही स्टेज पर प्रेम चोपड़ा और शर्मिला टैगोर जैसे मंझे हुए एक्टर साथ देखने को मिल जाएं, तो अपने-आप में किसी कमाल से कम नहीं. यदि इसी स्टेज पर इनके साथ जावेद सिद्दीकी और साथ हो जायें तो कहने ही क्या. ऐसा या तो किसी फ़िल्म में हो सकता है या फिर किसी ख़्वाब में. इसी ख़्वाब को सच करता हुआ दिखाई दिया रेख़्ता का ये स्टेज, जहां तीनों ने मिलकर ऐसा समां बांधा, जिसने दर्शकों को चाहने के बावजूद उठने ही नहीं दिया.

अगर आप ये सोच रहे हैं कि काश आप भी इसे करीब से देख पाते, तो इंतज़ार किस बात का है, अब भी वक्त है और पहुंच जाइये.