‘ये कोई गर्व की बात नहीं है कि दिल्ली में एक ही महिला है बस चलाने के लिए. और महिलाएं ये नौकरी क्यों नहीं हैं?’ 

ये कहना है 34 साल की वेंकादरथ सरिता का, जो पिछले 5 सालों से दिल्ली की सड़कों पर DTC बस चला रही हैं. 

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सरिता 2012 में तेलंगाना से दिल्ली आई थीं. सरिता को दिल्ली में एक NGO- आज़ाद फाउंडेशन के बारे में पता चला था, जहां महिला ड्राइवर्स को ट्रेन किया जाता है. 

सरिता के दिल्ली में शुरुआती दिन काफ़ी मुश्किल भरे थे. न ही उनको हिंदी आती थी और वो यहां के रास्तों से भी अंजान थी. पता थी तो बस एक चीज़ वो है वाहन चलाना. हालांकि उनके लिए भाषा सीखना भी इतना मुश्किल न था, क्योंकि वो हिंदी गाने सुना करती थीं और NGO में उन्हें भाषा की ट्रेनिंग भी मिलती थी. 

छः महीने की ट्रेनिंग के बाद सरिता एकदम तैयार थीं दिल्ली की सड़कों पर बस चलाने के लिए. मगर फ़िर भी सरिता को DTC बस ड्राइवर की सीट तक पहुंचने में 3 साल लग गए. दरसल, सरिता दिल्ली में शुरुआती दिनों में टैक्सी चलाया करती थीं. 

आख़िरकार, 2015 में 10 महिलाओं के बीच से केवल उन्हें DTC के बस चालक के रूप में चुना गया. 

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अपने गांव तेलंगाना में सरिता अपने परिवार को सहारा देने के लिए ऑटो चलाया करती थीं. सरिता के परिवार में उसके माता- पिता और चार बहने हैं. बाद में उन्होंने हैदराबाद के होली मैरी कॉलेज की बस भी चलाई है. मगर सरिता कहती हैं कि उन्होंने ऑटो सिर्फ़ अपने परिवार को सहारा देने के लिए नहीं चलाया था, वो हमेशा से कुछ अलग करना चाहती थीं. 

सरिता बताती हैं कि उनके पिता ने उन्हें हमेशा से ही बेटे की तरह पाला है. मगर पिता द्वारा बचपन में लड़कों की तरह कपड़े पहनाने पर उन्होंने ऐतराज़ जताया था. जिसके बाद से लड़के उनके साथ बदतमीज़ी करते थे. रोज़ लड़कों की इन बदतमीज़ी की हरकतों से तंग आकर आख़िर में सरिता ने लड़कों की तरह अपना रहन-सहन रखना शुरू कर दिया. 

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सरिता का दिन सुबह 5 बजे सरोजिनी नगर डिपो से शुरू होता है और दोपहर के क़रीब 12:30 बजे ख़त्म होता है. वो कहती हैं कि दिल्ली की सड़कों पर गाड़ी चलाते वक़्त संयम रखना सबसे ज़रूरी है. 

सरिता को अपने इस काम से जितना प्यार है उतना ही इस नौकरी से शिकायतें भी हैं. पिछले 5 सालों से बस चलाने के बावज़ूद वो DTC में स्थायी कर्मचारी नहीं हैं. उन्हें प्रति किलोमीटर के लिए 6.5 रुपये मिलते हैं. वो हर दिन लगभग 130 किलोमीटर ड्राइव करती हैं जिसके मुताबिक़ उनके एक दिन की तनख़्वाह 848 रुपये होगी. 

ज़्यादा काम करने के बावज़ूद भी सरिता इतना नहीं कमा पाती कि वो अपनी और अपने माता-पिता जो कि तेलंगाना में रहते हैं उनकी अच्छे से देखभाल कर सकें. 

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सरिता को कई बार अवॉर्ड देकर सम्मानित भी किया गया है. उन्हें प्रेसिडेंट अवॉर्ड भी मिला है. मगर सच तो यही है कि कितने भी अवॉर्ड मिलें, वो तो उनके घर का ख़र्चा नहीं पूरा कर पाएंगे. इसके लिए उन्हें रुपये और वित्तीय सुरक्षा की ज़रूरत है जो कि सरकार देने में विफ़ल हो रही है. 

मैंने कई अधिकरियों के दरवाज़े खटखटाए हैं, दिल्ली और तेलंगाना के ट्रांसपोर्ट मंत्री से भी मिली हूं मगर किसी ने मदद नहीं की. मुझसे वादा किया गया था कि मुझे 6 महीने में परमानेंट कर देंगे मगर वो वादा अभी तक पूरा नहीं किया गया है.
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सरिता का बस एक ही सपना है कि वो अपने माता-पिता को अपने साथ रख सकें. वो कहती हैं कि उन्हें हर पल उनकी याद आती है. 

सरिता ये नौकरी इसलिए नहीं छोड़ना चाहतीं ताकि उनकी देखा-देखी और लड़कियां इसमें आने की हिम्मत कर सकें. और शायद अगर ज़ल्द ही सरकार ने कुछ न किया तो दिल्ली अपनी एक मात्र DTC महिला बस ड्राइवर खो दे.