दीपावली, मैच में टीम इंडिया की जीत या फिर घर में किसी शादी, इन मौकों पर लोग आतिशबाज़ी करके अपनी ख़ुशी का इज़हार करते हैं. आतिशबाज़ी के बिना ये ख़ुशियां अधूरी सी लगती हैं. आतिशबाज़ी जीत और जश्न का पर्याय बन चुकी है. लेकिन क्या आपको पता है कि आतिशबाज़ी की उत्पत्ति कैसे हुई और क्या है आतिशबाज़ी का इतिहास? आज हम आपको बताते हैं, आतिशबाज़ी से जुड़ी वो रोचक बातें, जो आप आज तक नहीं जानते होंगे.

आतिशबाज़ी का इतिहास

दरअसल, पटाखों का आविष्कार चीन में हुआ था. 960 और 1279 ईसवीं के दौरान, चीनी लोग आतिशबाज़ी का प्रयोग बुरी आत्माओं को दूर भगाने के लिए किया करते थे. चीनी लोग अपने सम्राट के जन्मदिन और त्योहार के मौके पर आतिशबाज़ी करके अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करते हैं.

आतिशबाज़ी के रंग और उनका प्रभाव

नीले और हरे रंग की आतिशबाज़ी में प्रयोग किए जाने वाली धातु के लवण सबसे ख़तरनाक होते हैं. यहां तक कि इनसे कैंसर होने का ख़तरा भी होता है.

पटाखों के अंदर क्या-क्या होता है

Black Powder- पोटेशियम नाइट्रेट, सल्फ़र और कोयला का मिश्रण गर्म को होकर गैस बन जाता है.

Mortar (Container) – सिलेंडर की आउटर लेयर प्लास्टिक या धातु से बनी होती है.

Stars- ये आसमान में जाकर अलग-अलग रंगों के साथ विस्फ़ोट करते हैं. इनका टेनिस बॉल की तरह होता है.

Shell- पेपर और स्ट्रिंग से बने शेल को आधा काटकर सितारों के साथ चिपका दिया जाता है.

Bursting Charge- Bursting Charge का काम सितारों को प्रज्वलित करना होता है, जो बाद में चारों ओर जगमगाने लगते हैं.

Fuse- इसका काम थोड़ी देर के लिए धमाका रोकना होता है. 

आतिशबाज़ी के रंग और प्रभाव

मल्टी-ब्रेक सेल्स, फॉयरबॉल के लिए अलग-अलग चरणों का निर्माण करती हैं. विभिन्न तरीके के प्रभाव डालने के लिए कई रंग के सितारों और कंपाउड का इस्तेमाल किया जाता है. सेल्स कई खंडों में विभाजित होती है.

इसे फ़्यूज़ के साथ जला दिया जाता है. पहले खंड के फटने के बाद, दूसरे फ़्यूज़ को जलाया जाता है और जब दूसरा भी फट जाता है, तब तीसरे फ़्यूज़ को जला दिया जाता है. इसके बाद होती है आतिशबाज़ी.

कैसे बनता है इनका आकार?

आतिशबाज़ी के वक़्त सारे Star एक ही पैर्टन में फेंक दिए जाते है. पैकिंग के वक़्त इन्हें, जो भी आकार दिया जाता है, आसमान में जाकर ये वही रूप ले लेते हैं.