मेरा एक दोस्त था. एक शाम हम दिल्ली की सड़क पर बैठे बात कर रहे थे. मैंने उससे पूछा तुम आख़िरी बार कब रोए थे. उसने जो जवाब दिया उससे मैं अंदर तक हिल गई. उसने कहा, “मैं आख़िरी बार तब रोया था जब मेरे पिता की मौत हुई थी. मेरे पिता का बेकरी का बिज़नेस था. वो जब भी बिज़नेस के सिलसिले में कभी किसी और शहर या राज्य जाते थे, वो हमेशा मेरे लिए वहां के ख़ास तरह के केक और बिस्किट्स लाते थे. जिस दिन मेरे पिता की मौत हुई उस दिन मेरी मां बेतहाशा रो रही थी. मेरी उम्र कुछ 4 या 5 साल रही होगी. मुझे नहीं पता था कि मैं अपनी मां से क्या कहूं, मैंने उनसे कहा मां तुम मत रो मैं तुमसे कभी वो केक्स और बिस्किट्स नहीं मागूंगा.
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उसने बताया कि उस दिन के बाद वो कभी नहीं रोया. उसने कहा अगर मुझे कोई ऐसी जगह मिलेगी जहां रो सकूं, तो मैं रोना भी चाहूंगा.
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कुछ न कह पाना मुश्किल होता है ये हम सब जानते हैं. लेकिन ये कितना बड़ा है हम शायद ही इस बारे में सोचते हैं. एक स्टडी के अनुसार, डिप्रेशन की वहज से महिलाओं की तुलना में चार गुना अधिक पुरुष आत्महत्या के बारे में सोचते हैं. क्या ये सब अचानक हो जाता है? अपने आस-पास देखिए. उन छोटे छोटे लड़कों को जो 8-10 साल की उम्र में ये सुनना शुरू कर देते हैं कि क्या लड़कियों की तरह हो रहा है, बी अ मैन. और जब आप अपने आसपास के ‘मैन’ यानि पुरुषों को देखते हैं तो पाते हैं कि वे रफ एंड टफ हैं. रोना या अपने इमोशन्स को ज़ाहिर करना तो जैसे कोई दूसरी दुनिया की कोई बात है.
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इस बारे में यूएस के फ़ैमिली फ़िज़िशियन Michael Richardson कहते हैं कि समाज के बनाए इन नियमों में लड़के/पुरुष इस तरह फंसे हैं कि उनका दम घुट रहा है. 2018 में American Psychological Association की एक नई गाइडलाइन रिलीज़ की गई. जिसमें उन्होंने ‘Toxic Masculinity’ के बारे में बताया. और ये कि कैसे ये पुरूषों को अंदर ही अंदर खोखला कर रही है. ‘Toxic Masculinity’ एक साइंटिफ़िक शब्द है. इसे समझने के लिए एक फ़ैमिली फ़िज़िशियन ने बताया जब मैं इस शब्द को सुनता हूं, तो जो सबसे पहला इंसान मेरे दिमाग़ में आता है वो हैं मेरे पिता.
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‘जब भी मैं सोचता हूं कि एक पुरुष होना क्या है तो मेरे दिमाग में सबसे पहले मेरे पिता आते हैं. मेरे पिता एक साधारण परिवार से ताल्लुक़ रखते हैं. उन्होंने 12 साल की उम्र में अपने पिता को खो दिया था. उसके बाद से वो सिर्फ़ घर की ज़िम्मेदारियों में लग गए. कभी अपने बारे में नहीं सोचा. कभी किसी से कुछ नहीं बताया. सब कुछ अकेले सहते रहे. उनकी उम्र 60 साल हो गई है, लेकिन उन्होंने काम आज भी नहीं छोड़ा है, वो एक कॉन्ट्रैक्टर हैं, भारी-भारी पत्थर से भरी बोरियां उठाकर सीढ़ियों से चढ़ते उतरते हैं. उनकी आधी उम्र के भी उनसे धीमे काम करते हैं. बिना किसी शिकायत के सब करते रहते थे.
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फिर एक दिन पता चला उन्हें कैंसर है. उनके डॉक्टर भी चौंक गए क्योंकि वो जिस तरह से काम करते थे, किसी भी कैंसर पेशेंट के लिए वो कर पाना मुश्किल था. लेकिन धीरे-धीरे उनका ट्यूमर बढ़ने लगा और फ़ेफ़ड़े से लिवर तक पहुंच गया. तब उन्हें अपने सारे काम बंद करने पड़े.
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मेरे पिता अक़सर मुझसे कहते थे कि उनकी दवाइयां काम नहीं कर रही हैं. एक बेटे और एक फ़िज़िशियन होने के नाते मैं जानता था कि उनके लिए क्या कर रहा हूं. मैंने समय के साथ पाया कि वो अपनी दवाइयां नहीं ले रहे थे और न ही किसी से मदद मांग लेना चाहते थे. उन्होंने दवाई तब ली जब दर्द हद से ज़्यादा बढ़ गया. तब मुझे पता चला कि मेरे पिता को कैंसर नहीं, बल्कि डिप्रेशन मार रहा था.
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मेरे पिता डिप्रेशन में इसलिए गए क्योंकि वो कभी किसी से कुछ शेयर नहीं पाए. वो अपना दर्द नहीं बांट पाए, जिसे हम समझ नहीं पाते हैं.
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मैं एक फ़िज़िशियन हूं और रोज़ ऐसे पुरूषों से मिलता हूं जो डिप्रेशन का शिकार हैं. और ये लोग इसलिए डिप्रेस नहीं हैं वे कि अकेले हैं. इनमें से ज़्यादातर लोग वे हैं जो जीवन में अपना कोई भी ज़िम्मेदारी किसी के साथ बांट नहीं पाते. मैं अक़सर ऐसे पुरुषों से मिलता हूं जो खुद को अपने परिवार के लिए ‘संरक्षक’ मानते हैं.
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कभी-कभी मैं सोचता हूं कि अगर मैं अपने पिता से सीधे इस बारे में बात करता तो वो बहुत असहज हो जाते जैसे आज मेरे मरीज़ हो जाते हैं. क्योंकि यो जो रक्षक वाली छवि है न ये इतनी स्ट्रॉन्ग है जिसे तोड़ना किसी भी पुरूष के लिए बहुत कष्टदायी है.
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डिप्रेशन से जी रहे पुरुषों के लिए सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि इस बारे में पता लग पाए कि वे इससे जूझ रहे हैं. क्योंकि जब तक आप अपने बारे में कुछ कह नहीं पाएंगे, कोई बात साझा नहीं कर पाएंगे, अपने इमोशन्स को जता नहीं पाएंगे तब तक असंभव है कि कोई साइकॉलजिस्ट भी इस बारे में पता कर पाए कि किसी को क्या परेशानी है.
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हम सब वक़्त के साथ डिप्रेशन के बारे में बात करने लगे हैं लेकिन हमें देखना होगा कि समाज का एक बड़ा हिस्सा अपने ही बनाए हुए तौर तरीकों से मुश्किल में पहुंच रहा है. और इसे देखना इस वक़्त की सबसे बड़ी ज़रूरतों में से एक है.