महिलाएं और पुरुष एक नहीं हैं, हो भी नहीं सकते. दोनों की शारीरिक बनावट से लेकर मानसिक क्षमताओं तक बहुत अलग हैं.
इस अंतर को हम मानते हैं. पितृसत्तामक सोच ने कुछ काम स्त्रियों और कुछ पुरुषों के लिए निहित कर दिए हैं. पर ऐसा नहीं है कि पुरुष ममत्व विहीन होते हैं या फिर स्त्रियां भारी-भरकम सामान नहीं उठा सकतीं.
इसके बाद भी बहुत से ऐसे कार्यक्षेत्र हैं, जहां एक जैसे काम के लिए महिलाओं और पुरुषों की आय में बहुत अंतर है. दिहाड़ी मज़दूरी हो या कॉरपोरेट की नौकरी, ये अंतर हर जगह देखा जा सकता है.
कुछ ऐसी ही कहानी है रखवलदार(रक्षक), सरिता थापा की. महाराष्ट्र के सथावली गांव में आमों की सुरक्षा करती हैं सरिता. वो जितनी देर जागती हैं, काम ही करती रहती है. नेपाल के कैलाली ज़िले की रहने वाली सरिता सुबह 4 बजे से अपने दिन की शुरुआत करती हैं. सुबह उठकर वो लकड़ियां चुनती हैं, फिर अपने पति और बेटे के लिए दोपहर का भोजन तैयार करती, उन्हें काम पर और स्कूल भेजती हैं.
सरिता का पति आम अलग करने और पैक करने का काम करता है.
8 बजते-बजते, सरिता बर्तन और कपड़े धोकर आम के बगान की तरफ़ चल पड़ती है, बंदरों से आम की सुरक्षा करने. सरिता रात को 9 बजे वापस आती है और फिर अपने पति और बेटे के लिए खाना बनाती है.
इतनी मेहनत करने के बाद भी सरिता को ‘हेल्पर’ समझा जाता है और उसकी पगार उसके पति की पगार की आधी भी नहीं है.
सरिता के पति को जहां 9000 मिलते हैं, सरिता को सिर्फ़ 4000 मिलते हैं. HT से बात करते हुए सरिता ने बताया,
मेरे काम की शिफ़्ट कभी ख़त्म ही नहीं होती. कभी-कभी तो मैं दोपहर में खाना भी नहीं खा पाती.
पति और पत्नी की आय में इस अंतर के बारे में गांव के सरपंच मधुकर जाधव का ये कहना है,
महिला वर्कर्स ख़ुद से यहां नहीं आती, इसलिये उन्हें जोड़ीदार ही माना जाता है. वो अपने परिवार के साथ ही यहां आती हैं. उनकी आय पुरुषों की आय में Supplement की तरह ही है.
आय में भेदभाव के अलावा महिला रखवलदार को और भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है. ये कर्मचारी एक दिन के लिए भी काम नहीं छोड़ सकते, इसलिये आमों के बागान में ही रहते हैं. पीरियड्स के दौरान साफ़-सफ़ाई महिलाओं के लिए बड़ी समस्या बन जाती है. ऐसे बागीचों में ढंग के शौचालय भी नहीं होते हैं.
रखवलदारों को पास के तालाब से पानी लाकर ही गुज़ारा करना पड़ता है.
सरिता अपने गांव वापस जाने की सोच रही हैं और जून में शिमला जाने की. शिमला में जून में सेब तोड़ना शुरू हो जाता है. कभी आम तो कभी सेब, मिठास के आस-पास ज़िन्दगी गुज़ारती सरिता की ज़िन्दगी में शायद बहुत कम मिठास है.