हमारे देश में सोशल मीडिया(ख़ासतौर पर फ़ेसबुक) और असल युद्ध के मैदान में सिर्फ़ इतना ही अंतर है कि असल युद्ध के मैदान पर शारीरिक चोट लगने की पूरी गैरंटी है और फ़ेसबुक पर न लगने की.
छोटी-छोटी बातों पर बड़ी-बड़ी बहसें होती रहती हैं…इसे फ़ेसबुक पर लोगों ने बख़ूबी सच कर दिखाया है. चाहे वो राजनीति हो, धर्म हो या कोई विचारधारा, लोग अपनी पूरी भड़ास इसी पर निकालते हैं. अच्छे-अच्छे दोस्त इन बहसों के फलस्वरूप कट्टर दुश्मन बन जाते हैं.
कोई वीडियो देख लिया, कोई ऑडियो सुन लिया और एक-दूसरे की छीछालेदर करने में लग गए. रिश्ते तो ख़राब हुए ही, वक़्त भी बर्बाद हुआ. और अब एक शोध में भी ये पता चला है कि वीडियोज़ देखने से, लोगों को बोलते हुए सुनने से मनुष्य दी जा रही जानकारी पर कम सवाल उठाते हैं और एक हद तक उसे सच मानने लगते हैं.
Psychological Science में छपे एक शोध में ये प्रमाणित हुआ है. UC Berkeley और University of Chicago ने 300 Volunteers को संवेदनशील विषयों पर कुछ पढ़ने, वीडियो देखने और तर्क-वितर्क सुनने को दिए. इसके बाद Volunteers से उस विचार से संबंधित सवाल किए गए जिससे वे असहमत थे. नतीजा? जो लोग उनके विचारों से विपरीत विचारों के वीडियोज़ देखते हैं या तर्क सुनते हैं, उन्हें दी जा रही जानकारी पर आसानी से विश्वास हो जाता है. वहीं जो तर्क पढ़ते हैं वे ज़्यादा सवाल उठाते हैं.
मतलब साफ़ है. ज़ोर-ज़ोर से अगर कोई बात कह रहा है तो लोग उसी को सच मान लेते हैं और कई बार तो अपने विचार भी आसानी से बदल देते हैं. ज़्यादातर लोग चिल्लम-चिल्ली करनेवालों को ही जानकार भी मान लेते हैं.
शोधकर्ताओं का मानना है कि वैचारिक मतभेदों को आमने-सामने बैठकर सुलझाना ज़्यादा कारगर है. सोशल मीडिया पर भड़ास निकालना बेहद सहज है लेकिन एकसाथ बैठकर बातें करना, वाद-विवाद करना मुश्किल है.