महात्मा गांधी ने कहा था कि आपका एक छोटा-सा कदम दुनिया बदल सकता है. ऐसा ही एक छोटा-सा कदम 12 साल के शक्ति ने बढ़ाया. उसके नन्हें क़दमों से 25 बच्चों की ज़िंदगी बदल गई. शक्ति तमिलनाडु के Tiruvannamalai डिस्ट्रिक्ट में Narikuruvar जनजाति में पैदा हुआ था. इस जनजाति के लोग मुख्यधारा से दूर सिर्फ़ अपने ही आस-पास को सारी दुनिया समझते थे. शक्ति इस मनसिकता को तोड़ते हुए न सिर्फ़ खुद स्कूल गया, बल्कि उसने आस-पास के 25 और बच्चों को स्कूल आने के लिए राज़ी किया.

शक्ति के इसी काम के लिए उसे इंटरनेशनल पीस प्राइज़ फॉर चिल्ड्रन 2017 के लिए नॉमिनेट किया गया है. इससे पहले ये पुरुस्कार बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली और नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला यूसिफज़ाई भी जीत चुकी हैं.

कैसे पकड़ी स्कूल की राह?

शक्ति के स्कूल जाने की कहानी भी कुछ कम दिलचस्प नहीं है. दरअसल 8 साल की उम्र में शक्ति ने टीचर्स की गालियों और मार की वजह से सरकारी स्कूल छोड़ दिया और अपने परिवार के साथ रहने लगा.

2014 में Hand-in-Hand नाम का एक NGO तमिलनाडु में आदिवासी समूहों के लिए काम करने के लिए आया, जहां वो शक्ति के गांव पहुंचे. यहां उन्होंने बच्चों को एक ट्रेनिंग सेशन में आने के लिए कहा. इस सेशन का मकसद सर्व शिक्षा अभियान के तहत बच्चों को स्कूल आने के लिए प्रेरित करना था. ये सब इतना आसान नहीं था, जितना कि पहली नज़र में दिखाई देता है. गांव के केवल कुछ परिवार ही इसके लिए कुछ शर्तों के साथ राज़ी हुए थे, जिनमें से शक्ति भी एक था.

इस बारे में शक्ति का कहना है कि ‘मेरे अलावा गांव से चार और बच्चों को वहां भेजा गया था. शुरुआत में जब मुझे वहां भेजा जा रहा था, तो मैं काफ़ी रोया था. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मेरे साथ ये ज़बरदस्ती क्यों की जा रही है?’

शक्ति बताता है कि ‘पहले ये सेंटर हमारे गांव के ही पास था, पर बाद में हमें Poongavanam के रेजिडेंशियल स्पेशल ट्रेनिंग सेंटर भेज दिया गया. यहां टीचर हमें पढ़ाते और सीखने में हमारी मदद करते थे. यहां हमें साफ़ कपड़े पहनने के लिए दिए गए और हॉस्टल जा कर हम उन्हीं चीज़ों की प्रैक्टिस करते थे.’

दिवाली और पोंगल के मौके पर जब शक्ति अपने घर आता, तो पास-पड़ोस के रहने वाले लोग उसे देख कर काफ़ी प्रभावित होते. कई बार दूसरे बच्चों के माता-पिता शक्ति से इस बदलाव की वजह पूछते, तो शक्ति उन्हें समझाता कि अगर हम अच्छा पढ़ेंगे, तो उन्हें अच्छी नौकरी मिलेगी और खेतों में काम करने की ज़रूरत नहीं रहेगी. धीरे-धीरे लोग शक्ति की बातों को समझने लगे और अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए तैयार होने लगे. लड़कों के अलावा लड़कियां भी अब इस मुहीम में शामिल होने लगी है और इस स्कूल में करीब 7 लड़कियां भी हैं.

‘Hand in Hand’ NGO की को-फाउंडर डॉ. कल्पना शंकर का कहना है कि ‘ये कोई आसान काम नहीं था, क्योंकि ज़मीनी स्तर पर हम खुद देख चुके हैं कि इन लोगों को मनाना इतना आसान नहीं था. शक्ति के इसी काम के लिए उसे इस अवॉर्ड के लिए हमारी तरफ़ से नामाकिंत किया गया है. इस अवॉर्ड में आये 169 नामों में शक्ति की उम्र सबसे छोटी है.’