भारत में आज भी शिक्षा ग़रीब लोगों की पहुंच से बाहर है. सरकार के प्रयासों के चलते आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों के बच्चे स्कूलों में दाखिला तो करवा लेते हैं, लेकिन सहूलियतों के अभाव में या तो बीच में ही पढ़ाई छोड़ने को मजबूर होते हैं या फिर ज़मीन पर बैठकर किसी तरह काम चलाते हैं.

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ख़ुद के भविष्य का भार इस क़दर इन मासूमों के कंधों पर होता है कि उनका बॉडी पोस्चर तक ख़राब हो जाता है. हालांकि, इस बात को बेंगलुरु के एक 24 वर्षीय छात्र हिमांशु मुनेश्वर देवर ने समझा और स्थानीय कारीगरों के साथ मिलकर एक ऐसा स्कूल बैग डिजाइन किया, जो डेस्क में बदल जाता है.

TOI के अनुसार, हिमांशु एक प्रोडेक्ट डिज़ाइन स्टूडेंट हैं, जिन्होंने NICC इंटरनेशनल कॉलेज ऑफ़ डिज़ाइन से ग्रेजुएशन किया है. इस प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए हिमांशु ने कई कॉर्पोकेट फ़र्मों में नौकरी के ऑफ़रों को भी ठुकरा दिया. वो उत्तर प्रदेश गए और फिर वहां कारीगरों के साथ मिलकर स्थानीय रूप से उगाई गई चंद्रा घास से बैग डिज़ाइन किया. 

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हिमांशु ने बताया, ‘मैं हमेशा से उन बच्चों के लिए काम करना चाहता था जो स्कूलों में डेस्क की कमी के कारण पोस्चर की समस्या से जूझते हैं. मैंने देखा है कि बच्चे क़िताबों के सामने कैसे घंटो गर्दन और पीठ मोड़कर बैठते हैं. ये दर्दनाक लगता है.’

बता दें, ये स्कूल बैग कुल तीन किलो का भार ले जा सकता है और ये बच्चों के कंधों और पीठ के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए डिज़ाइन किया गया है. बच्चे इस बैग को आसानी से कहीं भी ले जा सकें, इसलिए इसमें दो पट्टियां लगाई गई हैं. साथ ही, बैग से दो मैटल के स्टेंड जोड़े गए हैं, जो डेस्क बनने पर बैग के पैर बन जाते हैं.

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हिमांशु ने बताया कि, इस परियोजना पर काम करते समय उन्होंने मानवविज्ञान और एर्गोनॉमिक्स का अध्ययन किया था. 

‘मैंने एक क्लास 5 के छात्र का अध्ययन किया, साइज़ की गणना की और नापा कि वो कितने डिस्टेंस, एंगल और हाइट पर लिखता है. इन मापों का उपयोग प्रोटोटाइप के विकास में किया गया था.’

फ़िलहाल, हिमांशु बैग की बेहतर डिज़ाइन पर काम कर रहे हैं. उम्मीद है कि ये बैग ज़्यादा से ज़्यादा बच्चों तक पहुंच पाएगा.