हर साल माउंट एवरेस्ट न जाने कितने ही लोग चढ़ने के लिए जाते हैं, कुछ पहुंचने में कामयाब हो जाते हैं, जबकि कुछ नाकाम हो कर खाली हाथ लौट आते हैं. अब तक जितने भी लोग माउंट एवरेस्ट पर पहुंचने में कामयाब हुए हैं, उनके अनुभव से एक बात तो साफ़ है कि यहां जाने के लिए बुलंद हौसलों का होना ज़रूरी है.
ऐसे ही बुलंद हौसलों के साथ आंध्र प्रदेश के 6 बच्चे माउंट एवरेस्ट पर फतह हासिल करने के लिए चल पड़े. इन बच्चों की ख़ासियत ये थी कि ये सभी मामूली घरों से संबंध रखते थे, पर इनके इरादे बिलकुल भी मामूली नहीं थे. आज हम आपको इन्हीं बच्चों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने परिस्थितियों को हरा कर माउंट एवरेस्ट की ऊंचाइयों को मापा.
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AP Tribal Welfare Residential School के सीनियर छात्र वूयाका कृष्णा राव और कुंजा दुर्गा राव अनुसूचित जनजाति वर्ग से आते हैं. खेतों में मज़दूर करके दोनों परिवार का हाथ बंटाते हैं. सुरेश बाबू, कुर्नूल डिस्ट्रिक्ट के पुलिचिंता गांव के रहने वाले हैं. सुरेश के पिता घर का ख़र्च चलाने के लिए मज़दूरी करते हैं.
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करे सत्या राव विशाखापत्तनम के रहने वाले हैं और उनके पिता मछुआरे का काम करते हैं. एक अन्य छात्र नागराजू भी विशाखापत्तनम के ही रहने वाले हैं. दोनों की माउंट यात्रा को Youth Services Department ने स्पोंसर किया है.
कुर्नूल डिस्ट्रिक्ट के रहने वाले ताम्मिनेनी भारत 2015 में भी माउंट एवरेस्ट जाने वाले थे, पर नेपाल में आये भूकंप की वजह से उनका यह सपना, सपना बनकर ही गया था.
कैसे हुआ इन बच्चों का चयन?
राज्य सरकार ने सोशल वेलफेयर के तहत 65 बच्चों का चुनाव ट्राइबल वेलफेयर रेजिडेंशियल स्कूल से किया था. विजयवाड़ा के CBR एकडेमी में इन बच्चों को प्रशिक्षण दिया गया, जिसमें ये 34 बच्चे सफ़ल हुए.
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इन 34 बच्चों को आगे की ट्रेनिंग के लिए दार्जलिंग के हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्टिट्यूट भेजा गया. वहां इन बच्चों की संख्या 14 रह गई. इन 14 बच्चों को माउंट एवरेस्ट के मुश्किल हालातों को समझने के लिए लद्दाख भेजा गया, जहां से ये 6 बच्चे माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए सफ़ल पाए गए.
आमतौर पर किसी को माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने में 45 दिन लगते हैं, पर इन बच्चों ने ये कारनामा केवल 30 दिनों में ही कर दिखाया.