बच्चों को स्कूल भेजा जाता है ताकि वो बेहतर इंसान बन सकें. शिक्षकों के सोहबत में अच्छी बातें सीखे लेकिन तब क्या करेंगे जब शिक्षक ही ऐसी समझ रखता हो, जो जातीवादी हो.

दिल्ली का मामला है, शिक्षकों के चयन के लिए लिखित परिक्षा हो रही थी. उसमें ‘लिंग’ पर आधारित एक वस्तुनिष्ठ (यानि ऑब्जेक्टिव) प्रश्न का जवाब देना था. जो कुछ यूं था- पंडित:पंडिताइन::चमार:???

यानी ‘पंडित’ का स्त्रीलिंग अगर ‘पंडिताइन’ है, तब ‘चमार’ का स्त्रीलिंग क्या होगा? अगर प्रश्न का मक़सद उम्मीदवार का व्याकरण ज्ञान जानना ही था, तो इसके लिए कोई और प्रश्न भी पूछा जा सकता था. इसके अलावा ‘चमार’ शब्द का इस्तमाल भी कई संदर्भों में ग़ैरक़ानूनी है.

कुछ दिनों पहले दिल्ली सरकार के शिक्षा मंत्री और उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का एक भाषण सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा था, जिसमें वो शिक्षा व्यवस्था में मौज़ूद ख़ामियों पर अपनी चिंता शिक्षकों के साथ साझा कर रहे थे. भाषण के केंद्र में भाषा का इस्तेमाल ही था.

वहीं उनकी नाक के नीचे दिल्ली अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड शिक्षकों के चयन के लिए ऐसा विवादित प्रशन पत्र तैयार करता है, जिसमें सामाजिक दायित्व की कमी साफ़-साफ़ दिखती है. इस परिक्षा को पास करने के बाद जिन शिक्षकों की भर्ती होगी, वो बच्चों को किस प्रकार समाज को जाति मुक्त बनाने का पाठ पढ़ाएंगे?

2008 में सुप्रीम कोर्ट ने ये फ़ैसला दिया था, जिसके अनुसार मुख्यत: Sheduled Castes And The Scheduled Tribes(Prevention Of Atrocities) Act, 1989 के तहत ‘चमार’ शब्द का इस्तेमाल ख़ास जाती के लोगों अपमानित करने के लिए किया जाता है.

जहां एक तरफ़ दिल्ली सरकार शिक्षा के क्षेत्र में किए गए कार्य के लिए हर ओर से प्रशंसा प्राप्त कर रही है, वहीं दूसरी ओर ऐसी ख़बर बताती हैं कि देश में शिक्षा के क्षेत्र में बुनियादी सुधार बेहद ज़रूरी है.

Source: newslaundry