विकास की दौड़ में हम कई देशों को पछाड़ कर उनसे आगे निकल रहे हैं, पर आज भी संकीर्ण मानसिकता के जाल से खुद को आज़ाद नहीं कर पाए हैं. शायद इसी वजह से आज भी समाज का एक तबका ऐसा है, जो जाति व्यवस्था में जकड़े होने की वजह से शिक्षा से मरहूम रह जाता है.

इसी संकीर्ण मानसिकता से लोहा लेते हुए हरियाणा के एक छोटे से गांव की लड़की अपने सपनों के साथ दिल्ली जैसे बड़े शहर पहुंची और लोगों के लिए मिसाल बन गई.

ये कहानी है दिल्ली के मोतीलाल नेहरू कॉलेज के संस्कृत डिपार्टमेंट की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर कौशल पवार की, जिन्हें बाल्मीकि समाज से आने की वजह से स्कूल में टीचर ने ये कहा था कि ‘पढ़-लिख क्यों टाइम ख़राब कर रही हो? जाओ और अपने मम्मी-पापा की तरह टॉयलेट साफ़ करना सीखो.’

टीचर की इस बात का बुरा मानने के बजाय कौशल अगले दिन फिर स्कूल पहुंच गई, जहां टीचर ने उन्हें सबसे पीछे वाली लाइन में बैठा दिया. टीचर द्वारा पीछे बैठाने की वजह कहीं न कहीं वो मानसिकता भी ज़िम्मेदार नज़र आती है, जो कहती है संस्कृत शास्त्रों की भाषा है और उसे एक दलित कैसे पढ़ सकती है.

ख़ैर इन सब को पीछे छोड़ते हुए कौशल ने कैथल के इंदिरा गांधी महिला महाविद्यालय बैचलर करने के बाद कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से मास्टर की. इसके बाद उन्होंने रोहतक की महर्षि दयानन्द यूनिवर्सिटी से MPhil किया. आख़िरकार दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी PhD की और पश्चिमी दिल्ली में रहने के साथ ही कॉलेज में पढ़ाने लगी. दिल्ली में रहने के बावजूद उन्होंने अपनी दलित पहचान नहीं छिपाई और घर के बाहर अपनी नेम प्लेट लगवाई.

Feature Image Source: hindi.tv