उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ के 100 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार होने वाला है कि कोई महिला बतौर मेयर यहां का कार्यभार संभालेगी. आने वाली 26 तारीख को जब नगर निगम के चुनाव के लिए मतदान होगा, तब यहां ये इतिहास रचा जाएगा और महापौर पद पर किसी महिला को चुना जाएगा.

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आपकी जानकारी के लिए बता दें कि 1916 में उत्तर प्रदेश नगरपालिका अधिनियम पारित होने के बाद भारत में पहली महिला मेयर 1917 में चुनी गई थीं. लेकिन पिछले 100 सालों में, लखनऊ ने एक महिला को नगर निगम के प्रमुख के रूप में निर्वाचित होते हुए कभी नहीं देखा. लेकिन इस बार, लखनऊ मायाल सीट महिलाओं के लिए आरक्षित की गई है, इसलिए सभी पार्टियों ने महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है.

हालांकि, लखनऊ में कभी भी एक महिला महापौर नहीं रही, मगर यहीं से तीन बार एक महिला को लोकसभा के प्रतिनिधि के रूप में भेजा जा चुका है. 1971, 1980 और 1984 में शीला कौल लगातार लखनऊ से सांसद चुनी गईं थीं. लखनऊ जिले के गैजेट ऑफ़िसर से मिली जानकारी के मुताबिक, सितम्बर 1884 में स्थानीय निकाय द्वारा एक नगरपालिका बोर्ड बनाया गया था जिसके पहले चेयरमैन तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर HW Hastings थे. 1916 में, जब उत्तर प्रदेश नगरपालिका अधिनियम अस्तित्व में आया, तो बैरिस्टर सैयद नबीउल्ला स्थानीय निकाय का नेतृत्व करने वाले पहले भारतीय बने.

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मगर 1948 में, यूपी सरकार ने स्थानीय निकाय की चुनावी प्रकृति को बदल दिया और प्रशासक की अवधारणा को पेश किया. और साथ ही भैरव दत्त संवल (आईसीएस) को इस पद पर नियुक्त किया गया.

भले ही 100 साल का इंतजार दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन कभी नहीं से देर भली वाली कहावत यहां पर सच साबित होती दिखाई दे रही है. 31 मई, 1994 में हुए 74वें संवैधानिक संशोधन में लखनऊ की स्थानीय निकाय को नगर निगम का दर्जा दिया गया. इसके साथ ही नागरिकों को महापौर का चुनाव करने के लिए अनुमति देने के लिए नगरपालिका अधिनियम 1959 में भी प्रावधान किए गए थे. इतना ही नहीं रोटेशन के आधार पर महिलाओं, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, और अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान भी किया गया. और अब लखनऊ को एक महिला महापौर का चुनाव करने के लिए अपनी बारी मिल गई है.

बीएसपी की उम्मीदवार बुलबुल गोदियाल का कहना है,

‘100 साल का इंतजार दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन कभी नहीं से देर से ही सही.’ ऐसे में पहली महिला मेयर के लिए होने वाले चुनाव ख़ुशी का पल है. इसके साथ ही बुलबुल कहती हैं, ‘यह परिवर्तन निश्चित रूप से महिला सशक्तिकरण के लिए एक सकारात्मक कदम है.’
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भाजपा की संयुक्ता भाटिया का मानना है कि महापौर पद अब महिलाओं की प्रतिष्ठा से जुड़ा है. “ये आधी आबादी का मामला है … अब औरतों का समय आया है… सब को वोट देना चाहिए.”

जनवरी 1960 तक लखनऊ एडमिनिस्ट्रेटर के शासन के अधीन था. सन 1959 में उत्तरप्रदेश नगरपालिका अधिनियम,1916 की जगह उत्तरप्रदेश नगर निगम अधिनियम, 1959 अस्तित्व में आ गया था. इसके साथ 1 फरवरी, 1960 को लखनऊ में नगर निगम (नगर महापालिका) का गठन हुआ और इसकी चुनाव प्रक्रिया शुरू हुई. जिसके बाद राजकुमार श्रीवास्तव ने मेयर का पदभार संभाला. और एक बार फिर 1 फरवरी, 1966 से लेकर 3 जुलाई, 1968 तक प्रशासनिक व्यवस्था फिर से आ गई.

5 जुलाई, 1971 को दाऊजी गुप्ता महापौर बने और 30 जून, 1973 तक उनको दूसरा कार्यकाल मिला. जानने वाली बात है कि ये दाऊजी के कार्यकाल के दौरान ही हुआ था कि महापौर का कार्यकाल नगर निगम के समकालिक हो गया. जिसके परिणाम स्वरुप दाऊजी ने 26 अगस्त, 1989 से 20 मई, 1992 तक कार्यालय का संभाला किया.

ध्यान देने वाली बात है कि 30 जून, 1973 से अगस्त 26, 1989 तक की अवधि में एलएमसी के इतिहास में एक ख़ास बात हुई, जब कोई चुनाव नहीं हुआ. 1989 में ये केवल इलाहाबाद उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप पर था, कि जब सरकार ने स्थानीय निकाय चुनावों की घोषणा की. इसके बाद, दाऊजी गुप्ता 26 अगस्त, 1989 को लगातार तीसरी बार महापौर बने. फिर अखिलेश दास ने पहले नागरिक के स्लॉट पर कब्जा किया. हालांकि, दोनों ही नगर निगमों द्वारा चुने गए और मतदाताओं का आमना-सामना नहीं हुआ. 1995 में, जब एलएमसी का पुनर्गठन किया गया, डॉ एससी राय को महापौर चुना गया और कार्यालय में तीन पद मिले.