एक तरफ़ स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय से लेकर सफ़ाई के हर स्तर पर जहां देशभर में खूब चर्चा हो रही है, वहीं हमारे देश में मानवता को शर्मसार करने वाली सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा आज भी जारी है. 

ज़रा सोचिये न किसी मनुष्य द्वारा त्याग किए गए मलमूत्र की साफ-सफाई के लिए जाति विशेष को नियुक्त करना ही कितना अमानवीय है. और आज दशकों बाद भी लोग इस प्रथा से लड़ ही रहे हैं. 

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आज़ादी के बाद इस सन 1948 में इसे प्रथा को खत्म करने की मांग पहली बार हरिजन सेवक संघ की ओर से उठाई गई थी. तब से ले कर अब तक, इस प्रथा को ख़त्म करने की ज़ुबानी कोशिश बहुत हुई है. कानून बने, लेकिन सब धरे के धरे रह गए हैं. यह प्रथा खत्म होने का नाम नहीं ले रही है. जमीनी हक़ीक़त यही है कि दशकों बाद भी 13 लाख लोगों से जुड़ा ये गंभीर मुद्दा आज तक राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाया है. 

अलवर शहर के हजूरी गेट निवासी ऊषा चौमर को भी समाज की इस दलदल का हिस्सा मजबूरन बनना पड़ा. ऊषा को समाज द्वारा बनाए गए एक ‘निम्न वर्ग’ का हिस्सा होने के चलते मजबूरन मैला ढोना पड़ा था.   

मगर 2003 में सुलभ इंटरनेशनल संस्थान से जुड़ने के बाद उषा ने 17 साल के एक लम्बे अंतराल तक मैला ढोने वाली प्रथा का विरोध किया. जिस दौरान ऊषा ने लोगों को इस कुप्रथा के ख़िलाफ़ जागरुक किया और स्वछता के क्षेत्र में कई विभिन्न कार्य भी किए. 

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ऊषा को पूर्व में भी कई अवॉर्ड्स से नवाज़ा जा चुका है. 

ख़ैर, आज़ादी के इतने दशकों के बाद भी हजारों परिवार समाज के निचले स्तर का जीवन जीने को मजबूर हैं. हां, यह प्रथा हमारे देश के लिए राष्ट्रीय लज्जा है. और इसे खत्म होना ही चाहिए. सरकार को स्वछता अभियान के अंतर्गत सबसे पहले इसे मुद्दा बनाना चाहिए था.