त्रेता युग के श्रीराम जब अयोध्या लौटे थे, तब लोगों ने घी के दिये जलाकर स्वागत किया था. लेकिन कलयुग के श्रीराम जब कन्नौज वापस आए तो उन्हें सूखी रोटी तक नसीब नहीं हुई. दोनों में फ़र्क ये है कि एक भगवान श्रीराम थे, जो लंका विजय कर आए थे और दूसरा श्रीराम एक प्रवासी मज़दूर है, जो तमिलनाडु में अब न सबकुछ हारकर वापस लौटा है. आलम ये है कि उसे अपने परिवार का पेट भरने के लिए अपनी पत्नी के जेवर तक बेचने पड़ गए.  

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दरअसल, उत्तर प्रदेश के कन्नौज के फ़तेहपुर जसोदा गांव के रहने वाले श्रीराम अपनी शादी के तुरंत बाद क़रीब तीन दशक पहले रोज़ी-रोटी कमाने तमिलनाडु गए थे. वो कुड्डालोर शहर में कुल्फ़ी बेचा करते थे और अपनी पत्नी और नौ बच्चों के साथ किराए के घर में रहते थे. लेकिन देश में लॉकडाउन हो गया और उनके पास कोई काम नहीं बचा. वहीं, मई के तीसरे सप्ताह में उनके मकान मालिक ने घर खाली करने के लिए बोल दिया.   

उनके पास न अब रोज़गार था, न छत और न ही कोई बचत, ऐसे में वो 19 मई को ट्रेन पर बैठे और दो दिन बाद अपने गांव पहुंच गए. लेकिन यहां आकर भी उनकी तकलीफ़ें कम नहीं हुईं. परिवार के लिए खाना और दवाई खरीदने के लिए उन्हें 1,500 रुपये में अपनी पत्नी के जेवर स्थानीय बाज़ार में बेचने पर मजबूर होना पड़ा.  

परिवार के पास राशन कार्ड नहीं था. मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) या ग्रामीण रोजगार योजना के तहत कोई जॉब कार्ड भी नहीं बना था.  

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श्रीराम की बेटी राजकुमारी ने बताया कि, ‘जब हम वापस लौटे तो सरकार की तरफ़ से 10 किलो चावल और अनाज मिला था. लेकिन हमारा परिवार बड़ा है, ऐसे में राशन ख़त्म हो गया. इसके बाद मेरी मां और दो भाई-बहन बीमार पड़ गए. मेरे पिता ने कुछ काम करने की कोशिश की लेकिन दो दिनों में वापस से बेरोज़गार हो गए.’  

उसने बताया कि, ‘अंत में हमारे पास गहने बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, जो मेरी मां पहनती थी. जेवर बेचकर हमें कुछ दिन के लिए खाने और दवाई का पैसा मिल गया. हमने राशन कार्ड भी बनवाना चाहा लेकिन हमें बताया गया कि नए कार्ड अभी नहीं बन रहे हैं.’  

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सरकार ने मदद के लिए बढ़ाया हाथ  

स्थानीय मीडिया द्वारा श्रीराम और उनके परिवार की दुर्दशा को उजागर करने के बाद जिला प्रशासन मदद के लिए आगे आया है.   

कन्नौज के जिलाधिकारी राकेश मिश्रा ने मीडिया को बताया, ‘मैंने एक खंड विकास अधिकारी और एक आपूर्ति निरीक्षक को गांव में जांच के लिए भेजा. पूछताछ में पता चला कि ये परिवार क़रीब दो हफ़्ते पहले अपने गांव आया था और शुरुआत में हमारे ट्रांसिट कैंप में गया था. वो पंजीकृत थे और हमने उन्हें 15 दिनों का राशन किट दिया था.’  

उन्होंने आगे कहा, ‘उनके पास जॉब कार्ड नहीं था इसलिए हमने उनके लिए एक बनवाया है, साथ ही राशन कार्ड भी बनवाया गया है. अब उन्हें कोई समस्या नहीं है.’