ज़िंदगी मुश्किल पहेली है. ताउम्र निकल जाती है ये समझने में कि इस ज़िंदगी में हमारी ख़ुद की सांसे कहां हैं? क़दम चलते हैं मग़र कहां पहुंचने के लिए, ये शायद ही कोई जानता हो. कभी-कभी लगता है कि ये ज़िंदगी शायद हथेलियों को छूकर गुज़रने वाला एहसास भर है. एहसास हमारे अपनों के सुख-दुख का, जिसकी आहट लगते ही खुली हथेली हिम्मत की मुट्ठी में तब्दील हो जाती है.
यही वजह कि कुछ लोग अपनों के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर देते हैं और उफ़्फ़ तक नहीं करते. आज हम एक ऐसे ही शख़्स की कहानी आपको बताएंगे, जिसने अपने परिवार के हालात बदलने के लिए ख़ुद से अपना हाल पूछना भी छोड़ दिया है.
‘Humans of Bombay’ ने मुंबई के एक ऑटो ड्राइवर देसराज की कहानी शेयर की है, जिन्होंने महज़ दो साल के अंदर अपने दो बेटों को खो दिया. बेटे तो चले गए, मगर वो देसराज के आगे छोड़ गए पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी. आज देसराज सात लोगों के परिवार को अकेले पाल रहे हैं. इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी पोती को पढ़ाने के लिए अपना घर तक बेच दिया है.
दरअसल, 6 साल पहले देसराज का बड़ा बेटा हर रोज़ की तरह घर से काम पर निकला था, मग़र वो कभी वापस लौटकर नहीं आया. एक हफ़्ते बाद लोगों को उसकी डेडबॉडी मिली. देसराज के हालात ऐसे थे कि वो अपने 40 वर्षीय बेटे की मौत का मातम तक नहीं मना सके और अगले ही दिन ऑटो चलाने चले गए. देसराज कहते हैं कि उस दिन कुछ हद तक वो भी मर गए थे.
उस दिन देसराज टूट गए थे, लेकिन ज़िंदगी उन्हें फ़र्श पर बिखेरने को आमादा थी. बड़े बेटे को गुज़रे अभी दो साल ही हुए थे कि उनके दूसरे बेटे ने आत्महत्या कर ली है. जिन बेटों ने कभी देसराज के हाथों में पहली बार आंखें खोली थीं, वो ही उनकी आंखों के आगे गहरी नींद में सो चुके थे.
देसराज के एक कंधे पर अपने जवान बेटों की मौत का भार था, तो दूसरे कंधे पर अपनी बहू और उसके चार बच्चों की ज़िम्मेदारी का बोझ. इन हालात में भी देसराज ने झुकना कुबूल नहीं किया. जब दाह संस्कार के बाद उनकी 9वीं क्लास में पढ़ने वाली पोती ने पूछा- ‘दादाजी, क्या मैं स्कूल छोड़ दूंगी?’ तब उन्होंने कहा, ‘कभी नहीं’.
उस दिन से उन्होंने दिन-रात की परवाह किए बिना काम करना शुरू कर दिया. वो सुबह 6 बजे ऑटो चलाने निकलते और देर रात तक काम करते रहते. इसके बाद भी वो महज़ 10 हज़ार रुपये महीना कमा पा रहे थे, जिसमें भी 6 हज़ार रुपये बच्चों की पढ़ाई में खर्च हो जाते थे.
हालांकि, जब देसराज की पोती ने उन्हें बताया कि उसके 12वीं बोर्ड में 80% अंक आए हैं, तब उनकी ख़ुशी का ठिकान ही नहीं रहा. पूरे दिन उन्होंने अपने सभी ग्राहकों को मुफ़्त सवारी दी.
उसी दिन उनकी पोती ने दिल्ली जाकर बी.एड. कोर्स करने की बात कही. देसराज की हैसियत नहीं थी, मगर वो अपनी पोती को सफ़ल होते किसी भी क़ीमत पर देखना चाहते थे. ऐसे में उन्होंने अपना घर बेचकर अपनी पत्नी, बहू और अन्य पोतों को गांव भेज दिया और ख़ुद ऑटो में ही रहने लगे.
उन्होंने कहा, ‘अब एक साल हो गया है और ईमानदारी से कहूं तो ज़िंदगी उतनी ख़राब नहीं है. मैं अपनी ऑटो चलाता हूं और इसी में खाकर सो जाता हूं. बैस बैठे-बैठे कभी पैर में दर्द हो जाता है. मगर मेरी पोती मुझे फ़ोन करती है और मुझे बताती है कि वो क्लास में प्रथम आई है तब मेरा सारा दर्द मिट जाता है. मैं इंतज़ार कर रहा हूं कि जब वो शिक्षक बने और मैं गले लगाकर कह सकूं कि मुझे तुम पर गर्व है.’
बता दें, ऑटो ड्राइवर देसराज की इस कहानी ने सोशल मीडिया पर कई लोगों का दिल छू लिया है. लोग अब उनकी मदद के लिए भी आगे आ रहे हैं. एक यूज़र ने लिखा कि वो देसराज की आर्थिक तौर पर कुछ मदद करना चाहते हैं. वहीं, गुंजन रत्ती नाम के एक फेसबुक यूज़र ऑटो चालक देसराज की मदद के लिए फंड इकट्ठा करने का अभियान चलाया है. उन्होंने अब तक 276 लोगों की मदद से 5.3 लाख रुपये इकट्ठा कर लिए हैं.
वाकई में ये देखकर ख़ुशी हो रही है कि जिस शख़्स ने अपने परिवार के हालात बदलने के लिए इतनी मुश्किलें सहीं, आज कुछ लोग उसका हाल पूछने भी आगे आ रहे हैं.