जंगल की आग के बारे में हम सब जानते हैं, सुनते आए हैं. पेड़ों के आपस में घर्षण (Friction) से जंगल में अपने-आप आग लग जाती है, जिसे दावानल कहते हैं.

सूर्यगांव, नैनीताल से 30 किलोमीटर स्थित गांव के रहनेवाले विनोद चंद ने Times of India को बताया,
इस गर्मी में तीसरी बार गांव के पास के जंगल में आग लगी है. हम गांववालों ने आपस में मिलकर हमारे घरों तक आग को फैलने से रोका. उस दिन कई घरों में खाना नहीं बना था. खाना बनाने की लकड़ी नहीं थी और सभी के पास एलपीजी नहीं है.

उत्तराखंड के कई इलाकों में पशुओं द्वारा इंसानों के घरों के आस-पास भागकर आने की घटनाएं भी रिपोर्ट की गई थी.
रिपोर्ट्स के मुताबिक, 16 सालों में ये दूसरी सबसे भयंकर आग है.
2000 से अब तक उत्तराखंड ने 44, 518 हेकटेयर जंगल खो दिए हैं. पर आज भी जंगल की आग को रोकने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक में कोई बदलाव नहीं आया है.

Times of India की रिपोर्ट के मुताबिक, जंगल की आग को रोकने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तरीके किसी काम के नहीं हैं औऱ उनसे आग की रोकथाम नहीं होती. जंगल की आग को रोकने के लिए एक अलग पद, Chief Conservator of Forests बनाया गया था. एक पूर्व Chief Conservator of Forests ने Times of India को बताया,
मेरे पास सर्वे या शोध के लिए बजट बनाने का अधिकार नहीं था. जंगल की आग को मैनेज करने के लिए Long Term Policy की ज़रूरत है पर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया.
पहचान छिपाने की शर्त पर एक अफ़सर ने Times of India को बताया,
हमारे पास सिर्फ़ 5 ड्रोन है. एक पूरे राज्य पर सिर्फ़ 5 ड्रोन नज़र कैसे रख सकते हैं?

ड्रोन्स ने नैनीताल और अल्मोड़ा के जंगलों में आग की 100 घटनाओं के बारे में अफ़सरों को इत्तिला किया.

इस साल सोशल मीडिया द्वारा आग की घटनाओं की जानकारी देने की सुविधा भी शुरू की गई थी पर फ़ेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम मिला कर सिर्फ़ 10 लोगों ने ही एलर्ट भेजा.