हमेशा से हम सुनते आये हैं कि कोई औरत कहती है कि अरे अपनी पड़ोस वाली है न उसका पति और ससुराल वाले अकसर उसे मारते-पीटते हैं. पर क्या यही वाक्य किसी पुरुष के लिए सुना है आपने, नहीं न? क्यों, क्या घरेलू हिंसा की शिकार महिलाएं ही हो सकती हैं, पुरुष नहीं? पुरुष को शुरू से समाज में मजबूत माना जाता रहा है. पर इसका मतलब ये तो नहीं है न कि घर की चारदीवारी के भीतर उसे सताया न जाता हो.

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अब इत्तेफ़ाक देखिये आज तक आपने कई ऐसे केस देखे होंगे, जिनमें एक महिला खुद को दुखियारी साबित करते हुए थाना, कचहरी, कोर्ट के सामने बड़ी आसानी से अपने पति, ससुर और सास को जेल भिजवा देती है. पर अगर ऐसा ही एक पुरुष करना चाहे तो? सबसे पहले तो उसका समाज ही उसका मज़ाक उड़ाएगा. लोग कहेंगे कि घर में औरत से पिट गया तू! थू है तेरी मर्दानगी पर. घर में हो रही अगर इस हिंसा का विरोध करने लगे तो, फिर वही महिलाओं का दुखियारी वाला ताम-झाम. पर अब ऐसे लोगों को समाज में बोलने का मौका दिया गया है. आख़िरकार देश के न्यायालयों को इस बात का आभास हो ही गया कि पीड़ित सिर्फ़ पत्नी नहीं, पति भी हो सकते हैं.

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सर्वोच्च न्यायालय ने घरेलू हिंसा कानून में फेरबदल कर दिया है. पहले इस कानून में धारा 2(q) में पुरुष का ज़िक्र था, जिसे कोर्ट ने हटाकर व्यक्ति कर दिया है. जस्टिस कुरियन जोसफ और नरीमन ने ये ऐतिहासिक फैसला लिया. इससे पहले घरेलु हिंसा कानून 2005 में ऐसा ज़िक्र था कि घरेलू हिंसा विरोधी कानून के तहत पत्नी या फिर बिना विवाह किसी पुरुष के साथ रह रही महिला मारपीट, यौन शोषण, आर्थिक शोषण या फिर अपमानजनक भाषा के इस्तेमाल की परिस्थिति में कार्रवाई की जा सकती है. पर इसमें बदलाव करते हुए ये कहा गया है कि अगर पुरुषों के साथ भी ऐसा कुछ होता है, तो महिलाओं पर कार्रवाई की जा सकती है.

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आये दिन न जाने कितने पुरुष, पति, अपने ऊपर होने वाले शारीरिक, मानसिक और आर्थिक प्रताड़ना सहते हुए या तो जीने को मजबूर हैं, या मौत को गले लगा लेते हैं. ऐसे में ये कानून उनको भी आवाज उठाने का मौका देगा. ये बदलाव बहुत ज़रूरी था समाज में, क्योंकि हर स्थिति में पीड़ित सिर्फ़ महिलाएं ही नहीं होतीं.