महिलाओं के बारे में जब भी हम बात करते हैं, तो हम उन्हें देवी, आधी आबादी और शक्ति कह कर संबोधित करते हैं. ये बात शत प्रतिशत सच भी है, मगर हम मासिक धर्म के बारे में कभी बात नहीं करते. इससे हम कतराते हैं, जबकि सच्चाई यही है कि इस दौरान महिलाओं को काफ़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. भले ही महिला सशक्तीकरण की दिशा में तमाम प्रयास किए जा रहे हों, लेकिन इन सबके बावजूद आज भी ग्रामीण भारत और ग़रीब परिवारों की महिलाएं पीरियड्स के दौरान सैनिटरी पैड का इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं.

सोचिए, कई परिवारों में दो जून की रोटी के लिए ही तमाम मशक्कत करनी पड़ती हैं, ऐसे में महिलाएं हाइजीन और स्वास्थ्य को नज़रअंदाज़ कर देती हैं. जबकि ये ज़रुरत है. इसी ओर ध्यान देते हुए एमआईटी की ग्रैजुएट अमृता सहगल ने अपनी क्लासमेट क्रिस्टिन कागेत्सु के साथ मिलकर केले के पेड़ में मौजूद फाइबर वेस्ट से सैनिटरी पैड बनाने पर काम शुरू किया. यह पहल देश की महिलाओं के लिए किसी वरदान से कम नहीं है.

पीरियड्स के दौरान शहरी महिलाएं सैनिटरी पैड्स ख़रीद लेती हैं, मगर ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं पुराने कपड़ों से काम चला रही हैं. ऐसे में अमृता और उनके साथी न केवल ग्रामीण भारत की महिलाओं को हाइजनिक पैड्स उपलब्ध करा रही हैं, बल्कि पैड्स खरीद पाने की सामर्थ्य न रखने वाली महिलाओं को आर्थिक दिक्कतों से भी निजात दिला रही हैं.
यह आइडिया अमृता को पढ़ाई के दौरान आया था. पढ़ाई के बाद वो P&G संस्थान से जुड़ गईं. उन्होंने अपने दोस्त के साथ मिलकर कई ट्रायल किए, कई असफ़ल ट्रायल के बाद आख़िरकार उन्हें सफ़लता मिल गई.

इस प्रोजेक्ट को महिलाओं के बीच प्रचारित करने के लिए अपनी संस्था ‘साथी’ की स्थापना की. इनका एक ही काम है, कम दामों में बेहतर सैनिट्री नैपकिन तैयार करना.
एक रिपोर्ट के अनुसार, देश की 70 प्रतिशत महिलाएं माहवारी के दौरान सैनिटरी नैपकिन्स का इस्तेमाल नहीं करतीं. इतना ही नहीं, 88 प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं, जो सैनिटरी नैपकिन्स की जगह कपड़े का इस्तेमाल करती हैं.
इस सफ़लता से कई महिलाओं की ज़िंदगी में सुधार आएगा. सैनिटरी पैड्स नहीं होने के कारण महिलाओं को पीरियड्स के दौरान कई तरह की समस्याओं से जूझना पड़ता है. ऐसे में ये सैनिटरी पैड्स उनकी साथी बनकर आए हैं.