रास्ते पर किसी सार्वजनिक शौचालय के सामने से गुज़रते वक़्त बदबू की वजह से आप 200 मीटर दूर से ही अपनी नाक बंद कर लेते हैं. मल-मूत्र की बात मात्र से ही उलटी आने लगती है तो ज़रा सोचिए उन लोगों को क्या, जो पेट की आग बुझाने के लिए आज भी सीवर में उतरकर सफ़ाई करते हैं.
आज जब हम हर क्षेत्र में ऊंचाई की नई बुलंदियां छूं रहे हैं वहीं, ऐसी आमनवीय प्रथाएं प्रश्न चिन्ह लगा देती हैं! क्या हम अभी भी इतने इंसान नहीं हुए कि मनुष्यों द्वारा त्याग किए गए मलमूत्र की साफ़- सफ़ाई के लिए मशीनों का इस्तेमाल करें? क्या हमारे अंदर अभी तक इंसानियत नहीं जागी कि किसी जाति विशेष को इन कामों के लिए लगाना कितना छोटा और घटिया है.
उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद के रहने वाले एक पुरुष को भी न चाहते हुए इस अमानवीय काम का हिस्सा बनना पड़ा.
3 साल पहले डिलीवरी बॉय की नौकरी से निकाले जाने के कारण वो मैला ढोने को मजबूर हो गए थे. भारत में ग़ैरक़ानूनी होने के बाद भी हज़ारों लोग अपनी जान जोख़िम में डाल अपना और अपनों का पेट पालने के लिए ऐसा काम करने को मजबूर हो जाते हैं.
घर में दो छोटे बच्चों की देखभाल के कारण वो भी इस शर्मसार प्रथा का हिस्सा बन गए. अपने पहले दिन का वर्णन करते हुए वो कहते हैं,
मेरे पहले दिन, उन्होंने मुझे गम बूट, हेलमेट दिया और लेट्रिन के गढ्ढे में कूदने को कहा जो गले तक भरा हुआ था. 10 मिनट के बाद मेरा दम घुटने लगा और मुझे लगा कि मैं बेहोश हो जाऊंगा. मेरा चेहरा सूज गया था, मैं उस मल से बाहर निकलने के लिए भी जूझ रहा था ताकि सांस ले सकूं. ऐसी बदबू आती है कि आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते हो.
आपको बता दें कि ये सीवर ज़हरीली गैस का घर होते हैं. इतनी की काई बार साफ़ करते वक़्त लोगों की जान तक चली जाती है.
वो आगे बताते हैं कि वो हफ़्ते के 6 दिन और दिन में 12 घंटे से भी ज़्यादा काम करते हैं, तब कहीं जाकर मुश्किल से महीने का 12,000 कमा पाते हैं.
अपने काम से जुड़े जानलेवा जोख़िम वो अच्छे से समझते हैं. जब किसी अन्य साथी की सीवर के गढ्ढे में डूबकर हो जाने वाली मौत के बारे सुनते हैं तब उनकी रूह कांप उठती है. और हमारी तरह वो भी यही सवाल पूछते हैं कि,
जब दुनिया इतनी आधुनिक हो गई है तो क्यों आज भी इन लेट्रिन के गढ्ढों को साफ़ करने के लिए एक मनुष्य की ज़रूरत है? बीते कई सालों में कितने क़ानून पारित हुए हैं लेकिन लागू एक भी नहीं है क्यों?
अंत में वो बस इतना ही कह पाते हैं कि..“जितनी बार में उस गढ्ढे में होता हूं, मैं यही दुआ करता हूं कि मैं मर जाऊं”
एक रिपोर्ट के अनुसार, 31 जनवरी, 2020 तक 18 राज्यों में किए गए एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में पाया गया है कि 48,345 लोग मैला ढोते हैं. 2018 में एकत्र किए गए आंकड़ों के अनुसार, 29,923 लोग उत्तर प्रदेश में इस प्रथा का शिकार थे.
आज़ादी के बाद इस सन 1948 में इसे प्रथा को ख़त्म करने की मांग पहली बार हरिजन सेवक संघ की ओर से उठाई गई थी. तब से ले कर अब तक, इस प्रथा को ख़त्म करने की ज़ुबानी कोशिश बहुत हुई है. कानून बने, लेकिन सब धरे के धरे रह गए हैं. बैन होने के बाद भी यह प्रथा ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही है. ज़मीनी हक़ीक़त यही है कि दशकों बाद भी लाखों लोगों से जुड़ा ये गंभीर मुद्दा आज तक राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाया है.