अपने परिवार वालों द्वारा छोड़ दिया जाना किसी सदमे से कम नहीं होता. जिन लोगों के साथ आपने दशकों बिताए हों, उन्हें छोड़ कर एक अलग और परेशानी भरे हालातों में रहना किसी मानसिक आघात से कम नहींं. अपने अंत तक आते-आते ये बूढ़े लोग बेहद संघर्ष और परेशानी भरे हालातों में होते हैं. दुनिया की बाकी समस्याओं की तरह ही ज़्यादातर लोग इन बूढ़ों को भी समस्या मान कर मुंह फ़ेर लेते हैं, लेकिन डॉ. मोदी जैसे लोगों के प्रयास साबित करते हैं कि दुनिया में मानवता अब भी बाकी है.
डॉ. मोदी 500 से ज़्यादा असहाय सीनियर सिटिज़ंस को हर रोज़ खाना खिलाते हैं. वे ये सारा खर्च खुद उठाते हैं. गुजरात के राजकोट शहर के गांव अमरेली से वे मुंबई आए थे और उन्होंने मुंबई में वैकल्पिक चिकित्सा की प्रैक्टिस शुरू की थी.
लगभग दस साल पहले उनके साथ कुछ ऐसा हुआ था, जिससे उनका ज़िंदगी के प्रति नज़रिया बदल गया.
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डॉ. मोदी के एक मरीज़ काफी उम्रदराज़ और बीमार थे. उनकी उम्र लगभग 78 साल थी. उनकी पत्नी भी काफ़ी असहाय और बीमार थीं. इस बूढ़े दंपति के पास एक वड़ा-पाव खरीदने तक के पैसे नहीं थे. जब उस असहाय शख़्स ने डॉ. मोदी से खाना मांगा तो उनका दिल भर आया. इसी के बाद उन्होंने फ़ैसला कर लिया कि वे अब बूढ़े लोगों को मुफ़्त में खाना खिलाएंगे.
उन्होंने अपनी टिफ़िन सर्विस का नाम श्रवण कुमार के नाम पर ही ‘श्रवण टिफ़िन सर्विस’ रखा है. इसे पहले छोटे स्तर पर ही शुरू किया गया. वृद्धों के लिए डॉ. मोदी की पत्नी कल्पना पहले 11 टिफ़िन तैयार किया करती थीं. मीरा-भायंदर क्षेत्र में एक दशक बाद टिफ़िन की ये संख्या 11 से 200 हो चुकी है. डॉ. मोदी इस बात का भी खास ख्याल रखते हैं कि डायबिटीज़ के मरीज़ों के लिए खाना अलग किचन में बने.
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हालांकि उनका ये प्रयास आर्थिक रूप से चुनौती भी है. डॉ. मोदी हर महीने इस नेक काम के लिए तीन लाख रुपये खर्च करते हैं. डॉ. मोदी ने कहा कि मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है, जब मेरे बच्चे अपनी सेविंग्स को ‘सेवा’ में लगाने के लिए हमें डोनेट करते हैं. कई लोगों से हमें समर्थन मिला है. मुझे उम्मीद है कि लोगों के समर्थन और भगवान के आशीर्वाद के साथ हम ज़्यादा से ज़्यादा ज़रूरतमंद लोगों की मदद कर सकेंगे.
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वे इस नेक काम को कई स्तर पर फ़ैलाना चाहते हैं. उनकी ख्वाहिश है कि वे एक ऐसा घर बनाएं, जहां वे अपने इन वृद्ध साथियों को ठहराने के साथ-साथ घर जैसा भी महसूस करा सकें. केवल खाने की नहीं, बल्कि हर तरह की ज़रूरतों को पूरा किया जा सके.
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