पेड़ नहीं काटना है, वन्यजीवों की संरक्षण करना है, ईंधन बचाना है, प्रकृति हित के लिए हम सैकड़ों कार्य करते हैं. दुनियाभर में लाखों NGO जानवरों, जल-जीवों और जंगलों के संरक्षण के लिए कार्य कर रहे हैं. दूसरी तरफ़ इन्हें बर्बाद करने का व्यापार भी तेज़ी पर है. फलों को कोल्ड स्टोर में कार्बाइड से पकाया जाता है. खेती में केमिकल डाल कर पैदावार बढ़ाई जाती है.
प्रकृति की बदलती छवि को दोबारा सुधारने के लिए कर्नाटक के एक छोटे गांव, कोलेगैल तालुक में एक किसान जी-तोड़ कोशिश कर रहा है. इस किसान का नाम कैलाश मूर्ति है और ये पेड़ों को नहीं, बल्कि प्रकृति की सबसे छोटी इकाई, माइक्रोब्स यानि सूक्ष्म जीवों को बचाने में लगे हैं. मूर्ति की सफ़ल कोशिश का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि उन्होंने पिछले 40 सालों में 11 एकड़ बंजर ज़मीन पर एक हर-भरा जंगल खड़ा कर दिया. ऊंचाई से देखने पर आपको ये अंदाज़ा हो जाएगा कि इस फ़ार्म के आस-पास की ज़मीन कैसी है.
Bangalore Mirror की रिपोर्ट के अनुसार ये जंगल कभी नहीं सूखा और यहां के फल बाकी बाज़ार वाले फलों के मुकाबले ज़्यादा बड़े और स्वादिष्ट हैं. मूर्ति का कहना है कि-
पेड़ों को अगर प्राकृतिक रूप से बढ़ने दें तो वो बेहतर होते हैं. ये केमिकल और खाद मिट्टी की उर्वरता यानि फर्टिलिटी बर्बाद कर देती है. गीली मिट्टी में रेंगते छोटे-छोटे कीड़े मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं. हम अगर इन सूक्ष्म जीवों को बचा लें, तो हम पूरी प्रकृति को बचा पाएंगे. ये जीव मिट्टी की उर्वरता बनाए रखते हैं, जिससे पेड़-पौधे बढ़ते हैं और अगर पेड़ बढ़ रहे हैं तो जंगल बनने में भी वक़्त नहीं लगेगा. इससे बेहतर जल संरक्षण, कोई झील या बांध नहीं कर सकता है.
निरंतर केमिकल का इस्तेमाल, पेड़ों की कटाई, धूप का सीधा मिट्टी पर पड़ना और मिट्टी के तापमान लगातार बदलने से ये सूक्ष्म जीव इन्हें अपना नहीं पाते. ये जीव पानी बचाने के लिए मिट्टी में जगह बना देते हैं, ताकि पेड़ों तक पानी पहुंच सके. अगर ये हैं, तो झीलों और बांधों की कोई ज़रूरत नहीं. जहां पानी खुला होता है, वहां पानी का वाष्पीकरण ज़्यादा होता है. ये पानी भाप बन कर समुद्र में चला जाता है और दोबारा किसी काम का नहीं रहता.
मूर्ति कहते हैं कि उन्हें उनके फार्म के 65-70 फ़ीट नीचे ही पानी मिल जाता है, वहीं उसी की आस-पास वाली जगहों पर 1,500 फ़ीट से नीचे पानी मिलता है. लगभग 40 साल पहले उन्होंने खेती करने का सोचा था, लेकिन एक अलग अंदाज़ में. उन्होंने न खेत जोता, न कोई खाद डाली, बल्कि कई बीज इधर-उधर फ़ेक दिए थे और दो साल बाद देखा कि वहां कई पेड़ निकल आए. उनका कहना है कि किसानों, जल संरक्षण बोर्ड, इंजीनियर और कृषि विभाग को इस पर ध्यान देना चाहिए.
इस तरीके से खेतों में किसान 80 प्रतिशत तक पानी बचा सकते हैं.
लोगों को ये बताया जाता है कि पेस्टिसाइड या फर्टिलाइज़र फ़सल के लिए अच्छे होते हैं, लेकिन इससे पौधे की रक्षात्मक प्रतिक्रिया ख़त्म हो जाती है. हमें कहा जाता है कि पेड़ों से कीट को हटाया जाना चाहिए, जो कि गलत है. पेड़-पौधे अपने तरीके से इनसे लड़ते हैं. लोग जंगली घास अपने खेतों से हटा देते हैं, जबकी वो खेतों में पानी को रोक कर रखते हैं. इससे धूप सीधी पानी या मिट्टी पर नहीं पड़ती जिससे पानी सीधे भाप नहीं बनता और पेड़ सूखने के बच जाता है.
इस 11 एकड़ की ज़मीन पर 135 प्रजाति के पेड़-पौधे हैं, जिसमें औषधीय पौधे भी शामिल हैं.
इस किसान के हिसाब से खेती कोई बड़ी बात नहीं है, ‘पेड़ों को अपने आप बढ़ने के लिए छोड़ दिया जाए, हमें कुछ करने की ज़रूरत नहीं है. ये सूरज की किरणों और फोटोसिंथेसिस से अपने आप बढ़ेंगे. यहां तक की टूटी डालों को भी अपनी जगह खुद बनानी चाहिए. हम अपनी सहूलियत के लिए प्रकृति को काफी नुकसान पहुंचा रहे हैं.