भारत में आज़ादी के पहले और बाद भी जातीय भेदभाव और छुआछूत जैसी बुराईयों को ख़त्म करने के लिए तमाम आंदोलन हुए. संविधान ने भी देश को इस बुराई से मुक्त कराने के प्रावधान बनाए, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त ये है कि हमारे समाज में जाति के आधार पर भेदभाव आज भी जारी है.   

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ख़ासतौर से धार्मिक संस्थानों में इनके प्रतिनिधित्व को आज भी स्वीकार्य नहीं किया गया है. हालांकि, इस ओर विश्व हिंदू परिषद (VHP) की तरफ़ से एक पहल की गई है. देश में पांच हजार दलितों को पुजारी बनाने में विहिप सफ़ल हुआ है.  

विहिप के प्रवक्ता विनोद बंसल ने कहा, ‘हमें दक्षिण भारत में बड़ी सफ़लता मिली है. यहां के राज्यों में दलित पुजारियों की संख्या ज़्यादा है. सिर्फ़ तमिलनाडु में ही ढाई हजार दलित पुजारी विहिप की कोशिशों से तैयार हुए हैं. आंध्र प्रदेश के मंदिरों में भी दलित पुजारियों की अच्छी-खासी संख्या है.’  

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उन्हें प्रशिक्षित करने का प्रयास इतना सफ़ल रहा है कि ज़्यादातर पुजारियों को सरकारी देखरेख में संचालित मंदिरों के पैनल में भी शामिल कर लिया गया है. बता दें, दलित पुजारियों को प्रशिक्षित करने के लिए अर्चक पुरोहित और सामाजिक समरसता विभाग अभियान चला रहे हैं, जो विहिप के ही दो विभाग हैं. प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद इन पुजारियों को तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम से सर्टिफ़िकेट भी दिया जाता है.   

साल 1964 में अपनी स्थापना से ही विहिप लगातार समाज में जातीय असामानता को ख़त्म करने के लिए काम कर रहा है. यहां तक 1989 को राम मंदिर का शिलान्यास भी विहिप ने दलित कामेश्वर चौपाल के हाथों कराकर उस समय सामाजिक समरसता का बड़ा संदेश दिया था.  

सामाजिक समानता में संतो ने निभाई बड़ी भूमिका  

जातीय भेदभाव ख़त्म करने और दलितों को वापस से समाज की मुख्य धारा से जोड़ने में कई साधु-संतों ने बड़ी भूमिका निभाई है. जिनमें से विश्वेश तीर्थ का नाम भी शामिल है. उडुपी के पेजावर मठ के प्रमुख विश्वेश तीर्थ ने समानता और मानव जाति की पवित्रता का प्रचार करने के लिए लंबी-लंबी यात्राएं की.   

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उनकी सबसे बड़ी और आश्चर्यजनक उपलब्धि दलितों को हिंदू समाज का अभिन्न हिस्सा मानने का निर्णय रहा. वो भी तब, जब दलितों को न सिर्फ़ हिंदुओं से अलग समझा जाता था, बल्कि उन्हें अछूत भी माना जाता था. स्वामी जी के प्रयासों से ही दलितों को हिंदू मेनस्ट्रीम में अहमियत मिलनी शुरू हुई.