कल दोपहर से ही फ़ेसबुक की हर दूसरी फ़ीड में एक ही ख़बर दिखाई दे रही है, जिससे पुणे में हो रहे दलित दंगों के बारे में जानकारी मिल रही है. ख़बर है कि यहां दलित और मराठा समुदाय के बीच हिंसक झड़प हुई, जिसमें एक दलित व्यक्ति की मौत भी हो गई. इस झड़प की शुरुआत पुणे के कोरेगांव भीमा से हुई, जो बाद में पाबल और शिकरापुर से होते हुए महाराष्ट्र के अन्य इलाकों में फैल गई.

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अब सवाल उठता है कि आखिर इस दंगे की वजह क्या थी?

असल में ये दंगे सवर्ण जाति कहे जाने वाले मराठाओं के स्वाभिमान पर चोट थी, जिसकी बुनियाद 200 साल पहले दलितों द्वारा लिखी गई थी. 1 जनवरी 1818 एक ऐसी तारीख है, जो दलित समाज से जुड़े लोगों के लिए किसी स्वर्णिम इतिहास से कम नहीं है. इसी दिन 800 सिपाहियों वाली ब्रिटिश सेना की टुकड़ी ने कोरेगांव की लड़ाई में 25 हज़ार मराठों वाली पेशवा बाजीराव की सेना को धूल चटा दी थी.

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800 सिपाहियों वाली इस ब्रिटिश सेना की टुकड़ी में ज़्यादातर सिपाही महार समुदाय के थे, जिन्हें लोग अछूत समझते थे. इस युद्ध में जीत के बाद अंग्रेजों ने कोरेगांव में एक विजय स्मारक बनवाया, जिस पर युद्ध में साहसिक प्रदर्शन करने वाले 49 सैनिकों के नाम उत्कीर्ण कराये गए. इन 49 सैनिकों में से 22 महार जाति से आते थे, जिसकी वजह से दलितों के लिए ये युद्ध एक स्वर्णिम इतिहास बन गया. उसी दिन से दलित 1 जनवरी को शौर्य दिवस के रूप में मनाने लगे और हर साल कोरेगांव भीमा में इकट्ठा होने लगे.

इस 1 जनवरी को भी इसी शौर्य दिवस को मनाने के लिए दलित समाज के लोग कोरेगांव भीमा में इकट्ठा हुए थे, पर मराठा समाज के कुछ लोग दलितों के इस शौर्य दिवस को अपमान के रूप में ले रहे थे. उनके लिए ये किसी काले दिन की तरह था, क्योंकि बाजीराव पेशवा को 1818 के इस युद्ध में आत्मसमर्पण करना पड़ा था. स्वाभिमान की इसी लड़ाई के चलते कुछ सवर्ण जाति से जुड़े कुछ लोगों ने इस दिवस का विरोध किया और जीत का जश्न मना रहे लोगों के साथ हाथापाई की. इस हाथापाई में एक युवक की मौत भी हो गई, जिसके बाद ये जश्न एक हिंसक घटना में बदल गया.

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किस तरफ़ है आपका समर्थन?

तथाकथित देशवासियों का एक ढर्रा सवर्ण जाति के इस विरोध को सही बतला रहा है, जिसके पीछे उनकी दलील है कि दलित अंग्रेज़ों की जीत का जश्न मनाने इकट्ठा हुए थे, जिसका विरोध करना हर देशवासी का फ़र्ज़ है. यदि आप फ़ेसबुक या WhatsApp यूनिवर्सिटी से निकले छात्र हैं, तो यकीनन इस विरोध का समर्थन करेंगे. इसके उलट अगर आप इतिहास के पन्नों को उठा कर सच की तह तक जायेंगे, तो पाएंगे कि इस लड़ाई में अंग्रेज़ों का साथ देने के लिए ख़ुद पेशवा ने ही दलितों को मजबूर किया था.

पेशवा ख़ुद ब्राह्मण जाति से आते थे, पर राजनीतिक चालों की बदौलत वो मराठाओं की सत्ता पर काबिज हो गए. इसके बाद उन्होंने दलितों के साथ दमन का वो कार्य शुरू कर दिया, जो मनुवादी संस्कृति की देन था. पेशवा ने अपने काल में शूद्रों को थूकने के लिए गले में हांडी टांगना अनिवार्य कर दिया. इसके साथ ही शूद्रों को अपने साथ एक झाड़ू रखने को कहा, जिससे चलते समय वो अपने पैरों के निशान मिटाते रहें. उस काल में स्वर्ण जाति के लोगों के शरीर पर शूद्रों की परछाई का गिरना भी एक अपराध था, जिसकी सज़ा भी केवल दलित को ही मिलती थी.

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इस तरह के दौर में दलितों को अंग्रेज़ों का सहारा मिला, जो छुआछूत के भाव से कोसों दूर थे. अंग्रेज़ों ने उन्हें ब्रिटिश सेना में शामिल होने का मौका दिया और बाकायदा बड़ी ज़िम्मेदारियां भी सौंपी. 1817 में तीसरे मराठा-ब्रिटिश युद्ध के दौरान जब मराठा और ब्रिटिश सेना आमने सामने आई, तो कोरेगांव में ब्रिटिश सेना के दलित जवानों ने मोर्चा संभाला और संख्या में कम होने के बावजूद पेशवा सेना को मैदान छोड़ने पर मजबूर कर दिया.