पूरी दुनिया में सफाई और बेहतर स्वास्थ्य के बड़े-बड़े दावे करने वाला WHO (विश्व स्वास्थ्य संगठन) यूं तो लोगों को जागरूक करने के लिए बड़ी-बड़ी बातें करता है, लेकिन इन सारे दावों की सच्चाई जाननी हो तो वो WHO के पड़ोस में बसी मलिन बस्ती में चले जाइए. यहां आकर आपको WHO द्वारा विश्व को बीमारियों से मुक्त कराने की सभी कोशिशें बेमानी लगेंगी क्योंकि इस बस्ती में लोग नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं.
दिल्ली स्थित संगठन के क्षेत्रीय ऑफिस के ठीक बगल में एक मलिन बस्ती है. वहां की स्थिति इतनी बदतर है कि आप वहां एक पल भी ठहरना नहीं चाहेंगे. वैसे तो सभी मलिन बस्तियों की स्थिति ऐसी ही होती है, मगर विश्व के सबसे बड़े स्वास्थ्य संगठन के बगल में इस तरह का नज़ारा अच्छा नहीं लगता है. पेश है आंखों देखी एक रिपोर्ट.
विश्व को स्वस्थ बनाने के लिए WHO यानि विश्व स्वास्थ्य संगठन की स्थापना की गई. इसका मुख्यालय ‘धरती के स्वर्ग’ कहे जाने वाले देश स्विटजरलैंड के जेनेवा शहर में स्थित है. दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के लिए इसका एक कार्यालय दिल्ली में भी है, जिसके अंतर्गत 7 देश आते हैं. ये तो वो जानकारी हो गई, जिसे आप किसी भी वेबसाइट से प्राप्त कर सकते हैं. लेकिन हम जो आज आपको जानकारी देने जा रहे हैं, उसके बारे में जान कर आप भी WHO के काम पर सवाल उठाएंगे.
द्वारका- नोएडा मेट्रो लाइन से जब आप गुजरते होंगे, तो आपको कई गगनचुंबी इमारतें नज़र आएंगी. उन्हीं इमारतों में से आपकी नज़र नीले रंग की एक बिल्डिंग पर जरूर पड़ती होगी. इंद्रप्रस्थ मेट्रो स्टेशन से गुजरने के बाद ही आपको इसकी बिल्डिंग दिख जाएगी. इसकी छत पर आपको सोलर प्लेट्स दिख जाएंगे. लेकिन…आपको सिर्फ़ वही नहीं देखना है. उसके बगल में एक बस्ती है, उसे भी देखना है.
बस्ती का कोई नाम नहीं
रेल की पटरियों और यमुना नदी के नालों के बीच बसी इस बस्ती का नाम ही नहीं है. यहां रहने वाले लोग कई सालों से गुमनामी की ज़िंदगी जी रहे हैं.
बॉउन्ड्री के उस पार क्यों नहीं देख पा रहा है WHO?
कहने को तो WHO एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन है. जो विश्व को स्वस्थ रखना चाहता है. लेकिन ठीक इसके ऑफ़िस के बगल में मलिन बस्ती है, जहां कई लोग कुपोषण और बीमारियों से परेशान हैं.
नाले से निकलती है बदबू
इस बस्ती के बगल में एक नाला है, जिसमें साल भर दुर्गंध आती है. एक आम इंसान के लिए वहां ठहरना बहुत ही मुश्किल है, लेकिन यहां के निवासी 30 साल से ये दुर्गंध बर्दाश्त कर रहे हैं.
बिजली है, मगर पानी नहीं
कुछ गैर-सरकारी संस्थाओं की मदद से इस बस्ती में बिजली का इंतजाम किया गया है, लेकिन स्वच्छ पानी अभी भी नहीं मिलता है. हालांकि पूरे शहर के लिए स्वच्छ पानी की व्यवस्था की गई है.
अधिकारी नहीं आते हैं
रोजगार की तलाश में रामदयाल 30 साल पहले गोरखपुर से आए थे. अब वे अपने परिवार के साथ इसी बस्ती में रहते हैं. कहते हैं कि यहां कोई अधिकारी ताकने भी नहीं आता है कि यहां के लोगों की ज़िंदगी कैसी है.
बच्चे कहते हैं, ‘स्कूल के लिए बस चलवा दो’
इस बस्ती में रहने वाले बच्चे पढ़ने के लिए दिल्ली के गोल मार्केट में जाते हैं, जो यहां से करीब 7 किलोमीटर दूर है.
WHO एक विडंबना है
कहने के लिए WHO एक बड़ी संस्था है, मगर इन लोगों के लिए तो ये एक दिखावा ही है. पूरे विश्व की चिंता करने वाली संस्था, इस बस्ती पर नज़र क्यों नहीं दौड़ा रही है.
‘ज़िंदा हूं और जी रहा हूं’
तस्वीरों में आप कुछ बच्चों को नहाते हुए देख सकते हैं. वे बच्चे WHO से निकले पानी से नहा रहे हैं. इनकी मां (नाम न बताने की शर्त पर) कहती हैं कि स्थानीय लोग हमें रखैल बनाना चाहते हैं. कई लोगों की बुरी नज़रें हमारे ऊपर रहती है.
स्थानीय लोगों की दिनचर्या
यहां रह रहे ज़्यादतर लोग मज़दूर तबके के हैं, जिनका काम बागवानी और सड़कों की सफाई करना होता है. महिलाएं आस-पास के कॉम्प्लेक्सेज में काम करती हैं.
कुछ मध्यम वर्ग के लोग भी यहां रहते हैं
ऐसा नहीं है कि इस बस्ती में सिर्फ़ गरीब लोग ही रहते हैं. कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनके पास अपनी गाड़ी और ऑटो भी है. वे इसे किराए पर देते हैं. कुछ लोगों की अपनी दुकान भी है.
‘ये हमारा काम नहीं है’
WHO की एक अधिकारी कहती हैं कि हमारा काम प्रोजेक्ट्स पर फोकस करना है. हम फंड दे सकते हैं, मगर प्रत्यक्ष रूप से हम काम नहीं करवा सकते हैं. ये काम सरकार या नगर निगम का है.
NGO भी घोटाला करते हैं
इस बस्ती की बेहतरी के लिए NGO सरकार से फंड तो आवंटित करवा लेते हैं, मगर काम नहीं करवाते.