आज हिन्दुस्तान के पहले सुपर हीरो ‘बिरसा मुंडा’ की जयंती है. जिसे संपूर्ण भारत में और विशेष तौर पर आदिवासी समाज में बड़े सम्मान और हर्षोल्लास से मनाया जाता है. लेकिन एक बात ये भी है कि आज़ादी के हीरो के तौर पर बिरसा मुंडा को उचित सम्मान अब तक नहीं मिल सका है और हम सभी इस बात के लिए प्रयासरत हैं कि बिरसा मुंडा को भारतीय इतिहास में यथोचित सम्मान मिल सके.

हिन्दुस्तानी अवाम और उसकी आत्ममुग्धता…

बिरसा मुंडा या फिर ‘भगवान बिरसा मुंडा’ जिस नाम से उन्हें हमारे देश का व्यापक आदिवासी समाज और संकुचित हिन्दुस्तानी समाज जानता है. हिन्दुस्तान के संदर्भ में ‘संकुचित’ इसलिए क्योंकि व्यापक हिन्दुस्तानी उच्च व मध्यम वर्गीय समाज ख़ुद को लेकर इतना आत्ममुग्ध है कि उसे फ़र्क ही नहीं पड़ता कि उसकी आरामदेह ज़िंदगी के लिए कितनों ने अपनी ज़िन्दगी क़ुर्बान कर दी है. न जाने कितने ही लोगों ने अपनों को छोड़ कर देशहित में और आज़ादी के संघर्ष में ख़ुद को आहुत कर दिया.

जन्म और पढ़ाई-लिखाई…

बिरसा मुंडा 19वीं सदी के एक प्रमुख आदिवासी जननायक थे. उनका जन्म 15 नवम्बर 1875 को बिहार प्रदेश के उलीहातू गांव-जिला रांची में हुआ था. गौरतलब है कि तब झारखंड और बिहार एक ही राज्य हुआ करते थे और बंगाल विभाजन भी नहीं हुआ था. साल्गा गांव में प्रारम्भिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढ़ने आये. यहां उन्होंने क्रिश्चियेनिटी को भी नज़दीक से देखा-महसूस किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आदिवासी समाज मिशनरियों से तो भ्रमित है ही, हिन्दू धर्म को सही से नहीं समझ पा रहा है.

अंग्रेजों से भिड़ंत और संघर्ष…

अंग्रेजों के भारत आने से पहले जल-जंगल और ज़मीन आदिवासियों के लिए मां की तरह हुआ करते थे, मगर भारत में अंग्रेजों के आगमन और उनके द्वारा भारत के शासन-प्रसाशन में सक्रिय और गैरज़रूरी दखल की वजह से आदिवासियों को ही उनके प्राथमिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया. ब्रितानी हुकूमत ने आदिवासियों से उनके प्राकृतिक अधिकार भी छीन लिए. उनकी अगुआई में आदिवासियों ने बेगार प्रथा के खिलाफ़ भी मोर्चा खोला और सफल रहे. आदिवासी जो पहले से ही वहां की सामंती और जमींदारी व्यवस्था से लड़ते आ रहे थे उसे बिरसा मुंडा ने और धार देने का काम किया.

उलगुलान आंदोलन के जनक व प्रणेता…

आदिवासी वैसे तो हमारे देश के सबसे पुराने और वास्तविक बाशिंदे हैं, मगर विकास की अंधदौड़ में उन्हें हमेशा ही दरकिनार किया गया. उनसे उनके ही संसाधनों को छीन कर गुलामों के मानिंद जीने को विवश किया जाता रहा है. इसी लूट से लड़ने के लिए बिरसा मुंडा ने आदिवासी समाज के बीच “उलगुलान” के बीज डाले थे. उलगुलान का शाब्दिक अर्थ ‘भारी कोलाहल व उथल-पुथल’ होता है. उलगुलान सृजन के लिए, उलगुलान शोषण के खिलाफ़, उलगुलान अपने हक़ों के लिए, उलगुलान झूठ और फरेब के खिलाफ़, उलगुलान ब्रितानी और सामंती व्यवस्था के खिलाफ़. उलगुलान लोकसत्ता को स्थापित करने हेतु. वे यह जानते थे कि आदिवासियों से उनके संसाधन की लूट के खिलाफ़ “उलगुलान” ही उनका हथियार व जवाब होगा.

अंग्रेजों के खिलाफ़ विद्रोह, कारागर और शहादत…

बिरसा मुंडा के संघर्षों और जिजीविषा की वजह से वहां के स्थानीय उन्हें ‘धरती बाबा’ के नाम से पुकारते थे. बेहद संसाधनविहीन होने के बावजूद वे और उनके द्वारा गठित गोरिल्ला सेना अंग्रेजों से न सिर्फ़ लड़ती रही, बल्कि उन्होंने कई जंगें भी जीतीं. उनकी सेना अंग्रेजों की तोपों और बंदूकों के खिलाफ़ विषबुझे तीरों से अनवरत लड़़ती-कटती रही. अन्त में चक्रधरपुर में बिरसा की भी गिरफ़्तारी हो गई. उस गिरफ़्तारी के वक़्त उनकी उम्र मात्र 25 वर्ष थी. ऐसा माना जाता है कि अंग्रेजों ने उनकी व्यापक अपील और असर को देखते हुए उन्हें कारागार में मीठा ज़हर दे दिया और कहा कि कारागार में हैजे की वजह से उनकी मौत हो गई. हालांकि उनका यह तर्क किसी के गले नहीं उतरा. और इस तरह भारत माता का यह सच्चा सबूत शहीद होकर इतिहास में अमर हो गया…

बिरसा बाबा की याद में…

बिरसा मुंडा जो हमारी साझी विरासत का नाम है. हमारे देश के संसद के सेंट्रल हॉल में भी उनका चित्र टांगा गया है. आज उनके नाम पर रांची के डिस्टिलरी पुल के पास समाधि भी स्थापित की गई है. वहीं उनकी मूर्ति भी लगी है. उनकी स्मृति में रांची के केन्द्रीय कारागार का नाम भी बदल दिया गया है और साथ ही रांची हवाई अड्डे का नाम भी बिरसा मुंडा हवाई अड्डा कर दिया गया है. बिरसा भगवान को समस्त देशवासियों की ओर से पुनश्च नमन…