सिख इतिहास के पन्नों को जब भी खोला जाएगा, उसमें एक से बढ़ कर एक वीर योद्धाओं का वर्णन मिलेगा. भारतभूमि की रक्षा करने वाले इन वीर सपूतों में एक वीर था, ‘सरदार हरी सिंह नलवा’. हरी सिंह एक वीर, प्रतापी और कुशल सेनानायक था. तत्कालीन समय में अफगान शासकों के हरी सिंह का नाम सुनते ही पांव कांपने लगते थे.
बचपन
हरी सिंह नलवा का जन्म 1791 में पंजाब प्रान्त के माझा क्षेत्र के गुजरांवाला में हुआ था. बचपन से ही हरी सिंह को अस्त्र-शस्त्र विद्या सिखने का शौक था. 10 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते पंजाब का यह शेर घुड़सवारी, मार्शल आर्ट, तलवार और भाला चलाना सीखने लगा था. 1805 में वसंतोत्सव के मौके पर महाराजा रणजीत सिंह ने एक प्रतिभा खोज प्रतियोगिता का आयोजन किया था.
हरी सिंह ने भी इसमें हिस्सा लिया और भाला चलाने, तीर चलाने से लेकर अनेक प्रतियोगिताओं में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया. इन सब से प्रभावित होकर महाराजा रणजीत सिंह ने उसे अपनी सेना में भर्ती कर लिया. अपनी बहादुरी की वजह से जल्द ही हरी सिंह को सेना की एक टुकड़ी की कमान सौंप दी गई. जिस कोमल उम्र में किशोर अपनी जवानी की दहलीज पर चलना सीख रहे होते हैं, उस उम्र में नलवा जंग के मैदान में शत्रुओं के पसीने छुड़ाया करता था.
जंगल में बाघ से सामना
रणजीत सिंह एक बार जंगल में शिकार खेलने गये. उनके साथ कुछ सैनिक और हरी सिंह भी थे. उसी समय एक विशाल आकार के बाघ ने उन पर हमला कर दिया. जिस समय डर के मारे सभी दहशत में थे, हरी सिंह मुकाबले को सामने आए. इस खतरनाक मुठभेड़ में हरी सिंह ने बाघ के जबड़ों को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर उसके मुंह को बीच में से चीर डाला. उसकी इस बहादुरी को देख कर रणजीत सिंह ने कहा ‘तुम तो राजा नल जैसे वीर हो’. तभी से वो ‘नलवा’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये.
अफगानों से लड़ाइयां
हरी सिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह के विजय अभियानों और सीमा विस्तार अभियानों के प्रमुख सेना नायकों में से एक थे. उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र की सीमा की पूरी ज़िम्मेदारी उन्होंने ही सम्भाल रखी थी.
हरी सिंह ने 20 से ज्यादा लडाइयों में सेना का नेतृत्व किया. उन्होंने 1813 में अटक, 1818 में मुल्तान, 1819 में कश्मीर और 1823 में पेशावर को भी अपने कबज़े में कर लिया था. सारे अफगान शासकों में हरी सिंह का खौफ़ फ़ैल गया था. जब वह जंग के मैदान में अपने दोनों हाथों में तलवार लेकर दुश्मन सैनिकों के सिर कलम कर रहे होते थे, तो बाकी सैनिक डर के मारे ही भाग जाते थे. उनकी बहादुरी की वजह से उन्हें ‘सरदार’ की उपाधि दी गई.
वीरगति
हरी सिंह ने खैबर दर्रे की सीमा की हमेशा बहादुरी से रक्षा की, उनके जीते जी अफगान कभी भी आगे नहीं बढ़ पाए. हरी सिंह ने अफगानों से रक्षा के लिए जमरूद में एक मजबूत किले का निर्माण करवाया था. अफगान आक्रमणकारी नियमित रूप से इस क्षेत्र में हमले करते रहते थे. 30 अप्रैल 1837 को जमरूद पर एक भयंकर आक्रमण हुआ. हरी सिंह उस समय अस्वस्थ चल रहे थे, फिर भी उन्होंने युद्ध में भाग लिया. उन्होंने अफगानों से उनका असला-बारुद छीन लिया. परन्तु लड़ते-लड़ते हरी सिंह बुरी तरह से घायल हो गये और वे वीरगति को प्राप्त हुए. हरी सिंह की मृत्यु के बावजूद अफगान पेशावर पर कब्जा नहीं कर पाए.
सरदार हरी सिंह नलवा का भारत के इतिहास में सराहनीय योगदान रहा है. परन्तु उनकी प्रसिद्धी कभी भी पंजाब की सीमाओं से बाहर नहीं पहुंच पाई. उनकी बहादुरी की वजह से इतिहास का वो दौर हमने देखा जब पेशावरी पश्तूनों पर पंजाबी भारतीयों का राज था. कुशल रणनीति और शेरदिल बहादुरी उन्हें एक श्रेष्ट सेनानायक बनाती थी. आज भी सिख योद्धाओं में उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता है.