ये कहानी है पुणे के रहने वाले दादासाहेब भगत (Dadasaheb Bhaga) की, जो ग्राफ़िक्स-टेम्प्लेट बनाने वाली कंपनी Ninthmotion के फ़ाउंडर हैं. लेकिन एक दौर था जब वो इंफ़ोसिस (Infosys) में ऑफ़िस बॉय की नौकरी किया करते थे. इस दौरान उन्हें ऑफ़िस के सारे कामों के साथ-साथ झाड़ू-पोछा भी करना पड़ता था. लेकिन 12वीं पास दादासाहेब भगत आज 2 करोड़ की कंपनी के मालिक हैं. फ़र्श से अर्श तक पहुंचने की ये कहानी बेहद प्रेरणादायक है.

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पुणे से क़रीब 200 किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के सबसे पिछड़े ज़िले में से एक बीड़ के रहने वाले दादासाहेब भगत बेहद साधारण परिवार से ताल्लुक रखते हैं. पथरीली ज़मीन और पहाड़ के बीच बसे इस गांव में खेती-बाड़ी के नाम पर कुछ भी नहीं है. पेट पालने के लिए यहां के लोग मज़दूरी पर निर्भर हैं. कुछ साल पहले तक दादासाहेब भगत का परिवार भी मेहनत मज़दूरी करके अपना गुज़रा करता था.

दरअसल, दादासाहेब भगत एक ऐसे गांव से ताल्लुक रखते हैं, जहां के लोग साल के 6 महीने गन्ना काटने के लिए दूसरे शहरों में जाते रहते हैं. दादासाहेब के माता-पिता भी दूसरों के खेती में दिहाड़ी मज़दूरी किया करते थे. उन्हें भी गन्ने की कटाई के लिए दूसरे शहरों में जाना पड़ता था. कुछ साल पहले तक उनका परिवार छप्पर और टिन शीट की दीवार वाले घर में रहता था. बारिश के मौसम में कई बार तो छप्पर ही उड़ जाता था.

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दादासाहेब के परिवार की आर्थिक हालत इतनी ख़राब थी कि 14-15 साल की उम्र में कुआं खोदने और क्रेन में रेत भरने की मज़दूरी तक किया करते थे. उन्होंने दूसरों के खेतों में दिहाड़ी मज़दूर के तौर पर गन्ना काटने के अलावा कंस्ट्रक्शन साइट्स पर भी काम. दिनभर मिट्टी निकालने और ट्रैक्टर में भरने के लिए उन्हें महज 80 रुपये मिलते थे.

दादासाहेब 10वीं पास करने के बाद मुंबई जाकर पनवेल सब्ज़ी मंडी में बोरी ढोने का काम करने लगे. यहां तकरीबन 3 महीने काम करने के बाद फिर से गांव लौट गये. हायर एजुकेशन के लिए पैसे नहीं थे. ऐसे में उन्होंने अपने शहर के सरकारी ITI संस्थान में एडमिशन ले लिया. क्योंकि यही सबसे सस्ता कोर्स था. कोर्स कंप्लीट करने के बाद उनकी पुणे में टाटा कंपनी की फ़ैक्ट्री में नौकरी लग गई. यहां उन्हें प्रतिमाह 4000 रुपये की सैलरी मिलती थी. लेकिन इतनी कम सैलरी में पुणे जैसे शहर में रहना, खाना-पीना और घरवालों को पैसा भेजना बेहद मुश्किल था.

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घरवालों को नहीं पता थी ऑफ़िस बॉय वाली बात

साल 2009 के आसपास की बात है. दादासाहेब का कोई जानने वाला इंफ़ोसिस कंपनी में काम करता था. एक रोज़ उस शख़्स का कॉल आया और दादासाहेब से कहा- ऑफ़िस बॉय की नौकरी है, सैलरी 9000 रुपये होगी, लेकिन ऑफ़िस में झाड़ू-पोछा आदि भी करना पड़ेगा. दादासाहेब ने बिना सोचे समझे हां कह दिया, क्योंकि उन्हें काम से ज़्यादा पैसे से मतलब था. सोचा- टॉयलेट साफ़ करूं या झाड़ू-पोंछा लगाऊं, कम-से-कम पैसे तो ज़्यादा मिलेंगे. आख़िरकार इंफ़ोसिस में ऑफिस बॉय की नौकरी शुरू कर दी. उनके माता-पिता को सिर्फ़ मालूम था कि उनका बेटा इंफ़ोसिस जैसी बड़ी कंपनी में काम करता है.

दादासाहेब जब इंफ़ोसिस के ऑफ़िस गया तो देखा कि लोग कंप्यूटर पर कुछ कर रहे हैं और बड़ी-बड़ी गाड़ी से आ रहे हैं. वो सोच में पड़ गए कि आख़िर इस कंप्यूटर के अंदर ऐसा क्या है, जिसकी वजह से लोग इतनी तरक्की कर रहे हैं. इंफ़ोसिस में ही पहली बार कंप्यूटर देखने को मिला था. एक रोज़ दादासाहेब को भी कंप्यूटर चलाने की भी इच्छा हुई, तभी उनके जानने वाले ने कहा- यदि तुम ग्राफ़िक्स-डिज़ाइनिंग सीख लू तो तुम्हें अच्छे पैसे मिलेंगे और इसमें किसी डिग्री की भी ज़रूरत नहीं है.

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दादासाहेब ने इसके बाद ऑफ़िस बॉय की नौकरी के साथ पार्ट टाइम ग्राफ़िक्स-डिज़ाइनिंग का कोर्स भी करने लगे. कोर्स सीखने के बाद उन्होंने घरवालों को इंफ़ोसिस की नौकरी छोड़ने की बात बताई. बेटे के इस फ़ैसले से घरवाले परेशान थे, क्योंकि उसकी सैलरी से ही घर चल रहा था. ऐसे में घरवालों ने नौकरी छोड़ने पर दादासाहेब को समझाया कि बहन की शादी होने वाली है, सिर पर इतना कर्ज है. दो-तीन साल के बाद करना, जो भी करना हो. अभी नौकरी करते रहो. लेकिन दादासाहेब मन बना चुके थे. वो नौकरी छोड़कर मुंबई की एक ग्राफ़िक्स कंपनी के साथ काम करने लगे.

दादासाहेब ने इसी कंपनी मैं ग्राफ़िक्स, टेम्प्लेट के अलग-अलग फ़ॉर्मेट जैसे VFX, मोशन ग्राफ़िक्स आदि के बारे में जाना. यहां वो 3-4 साल काम करते रहे. साल 2015 की बात है. दादासाहेब का एक्सीडेंट हो गया था. ऐसे में घर पर कुछ दिनों के लिए छुट्टी पर था. उनके पास अपना कोई लैपटॉप तो नहीं था, लेकिन दोस्त का लैपटॉप रूम पर रखा रहता था. दादासाहेब ने दोस्त के लैपटॉप से कुछ टेम्प्लेट बनाकर एक प्लेटफ़ॉर्म पर सेल करना शुरू किया. कुछ ही महीने बाद इस प्लेटफ़ॉर्म से सैलरी से ज़्यादा कमाई होने लगी. बस यही से लगा कि क्यों न मैं अपनी कंपनी शुरू करूं?

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आख़िरकार साल 2016 में दादासाहेब ने ख़ुद की Ninthmotion नाम से कंपनी बनाई. इस दौरान वो डिज़ाइन कस्टमाइज़ करने और अलग-अलग तरह के मोशन ग्राफ़िक्स, 3डी, टेम्प्लेट बनाने लगे. आज उनके प्लेटफ़ॉर्म पर हर महीने 40 हज़ार से अधिक एक्टिव यूजर्स हैं. कुछ बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियां, बिज़नेसमैन उनसे अपनी कंपनी की ज़रूरत के मुताबिक़ प्रोडक्ट डिज़ाइन करवाते हैं, टेम्प्लेट बनवाते हैं या प्लेटफ़ॉर्म से ख़रीदते हैं.

ऑस्ट्रेलिया की मल्टीनेशनल ग्राफ़िक डिज़ाइंनिग कंपनी Canva जिस मॉडल पर काम करती है, उसी मॉडल पर दादासाहेब की कंपनी भी काम करती है. आज दादासाहेब के अधिकतर क्लाइंट विदेशी हैं. उनके प्लेटफ़ॉर्म पर कुछ प्रोडक्ट फ़्री, तो कुछ सब्सक्रिप्शन बेस्ड हैं. आज उनकी कंपनी में 40 से अधिक लोग काम कर रहे हैं. दादासाहेब का टारगेट अब अगले कुछ सालों में 1000 लोगों को रोज़गार देना है.

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