यूं तो हमें आज़ाद हुए 71 साल हो चुके हैं, लेकिन आज भी हमारी एक चीज़ अंग्रेजों के कब्ज़े में है. शायद ही आप में से कुछ लोगों को ये बात पता होगी कि महाराष्ट्र में एक ऐसी रेलवे लाइन है, जिस पर आधिकारिक तौर से इंडियन रेलवे का हक़ नहीं है और इसके संचालन का ज़िम्मा ब्रिटेन की एक प्राइवेट कंपनी के पास है.
भारत में हो कर भी भारतीय न होने वाले इस रेलवे ट्रैक पर शकुंतला एक्सप्रेस नामक एक मात्र पैसेंजर ट्रेन चलती है. कहा जाता है कि यवतमाल से मुर्तिजापुर के बीच बनी इस नैरो गेज लाइन की शुरूआत ब्रिटिश राज में हुई थी. ये ऐसा दौर था जब सभी ट्रेनों का संचालन ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे के हाथों में था. इसके अलावा मध्य भारत में चलने वाली ट्रेनों की देख-रेख का ज़िम्मा भी इसी कंपनी के पास था. आश्चर्य की बात ये है कि 1952 में रेलवे के राष्ट्रीयकरण के दौरान, इस ट्रैक को अनदेखा कर दिया गया. इसीलिए आज भी इस लाइन पर ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे का मालिकाना हक़ है.
शकुंतला रेलवे की स्थापना 1910 में ब्रिटिश प्राइवेट फ़र्म के किलिक निक्सन द्वारा की गई थी. अंग्रेज़ों के राज में रेल नेटवर्क फैलाने का काम निजी फ़र्म ही किया करती थी. कंपनी ने ब्रिटिश गर्वमेंट के साथ जॉइंट वेंचर पर काम करके सेंट्रल प्रोविंस रेलवे नामक कंपनी का निर्माण किया. आज भी शकुंतला रेलवे की तरफ़ से नैरो गेज ट्रैक का यूज़ किया जा रहा है. यवतमाल से अमरावती ज़िले के अचलपुर तक 190 किमी तक की दूरी तय करने में करीब 20 घंटे का समय लगता है, जिसका किराया 150 रुपये है. इस रूट पर ट्रेन सिर्फ़ दिन में एक ही बार चलती है.
लगभग 100 साल पुरानी 5 डिब्बों की ये ट्रेन 70 साल तक 1921 में मैनचेस्टर में बने जेएडडी स्टीम इंजन से चलती रही. इसके बाद 1994 में इन इंजन की जगह डीज़ल इंजन लगा दिये गए. इस रेलवे लाइन का इस्तेमाल करने के लिए भारतीय रेलवे को हर साल करीब 1 करोड़ रुपये ब्रिटिश कंपनी को अदा करने होते हैं. नैरो गेज ट्रैक का इस्तेमाल यवतमाल से मुंबई रेलवे लाइन तक कपास पहुंचाने के लिए किया जाता है और वहां से कपास को मैनचेस्ट डिलीवर किया जाता है. इस ट्रेन को ग्रामीणों की जीवनरेखा भी कहा जाता है.
वहीं 2016 में तत्कालीन रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने Narrow Gauge को Broad Gauge में बदलने के लिए 1500 का बिल पास किया था. ताकि इसे भारतीय रेलवे के अधीन किया जा सके.