ब्रिटिश सेनाओं से मुकाबला करने के लिए बिछाई गई रेलवे लाइन
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान थाईलैंड पर जापानी सेनाओं का क़ब्ज़ा हो गया. थाईलैंड चूंकि ब्रिटिश उपनिवेश बर्मा के क़रीब था, इसलिए जापानियों के लिए ये सबसे मुफ़ीद जगह थी. हालांकि, जापान के लिए बर्मा के मोर्चे पर ब्रिटिश-अमेरिकी सेनाओं से लड़ रही अपनी फ़ौजों तक रसद पहुंचाना मुश्किल था. उस वक़्त समुद्री रास्तों पर दुश्मन सेनाओं का कब्ज़ा था. ऐसे में जापानियों को इस रेलमार्ग को बनाने की जरूरत थी.
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हालांकि दूसरे विश्व युद्ध के बहुत पहले थाई-बर्मा रेलवे लाइन की योजना बनायी गयी थी. लेकिन घने जंगलों में सड़कों के अभाव और विशाल पहाड़ों के कारण इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू नहीं हो पाया. फिर WWII से पहले 1942 में जापानियों ने दक्षिण पूर्व एशिया पर विजय हासिल कर वहां के 60,000 लोगों को बंदी बना लिया था. इन युद्ध बंंदियों में ऑस्ट्रेलियाई, ब्रिटिश, अमेरिकी और डच सैनिक थे.
गंदगी, भुखमरी और बीमारियों का शिकार हुए मज़दूर और युद्ध बंदी
इस भीषण परियोजना में काम करने वाले लोगों को बिल्कुल भी सुविधाएं मुहैया नहीं थी. उन्हें ठीक से न खाना दिया जाता था और न ही औज़ार. ये लोग बेहद गंदगी में रहते थे. इनसे 18-18 घंटे तक काम लिया जाता था. बारिश हो या कड़ी धूप, इन लोगों से जबरन लगातार काम कराया जाता था. काम न करने वालों को भयानक सज़ाएं दी जाती थीं. दलदली इलाके में खतरनाक मच्छरों से अधिकांश बंधक मज़दूरों को डेंगू, मलेरिया जैसी घातक बीमारियां हो गईं.
एक लाख मज़दूरों की हुई मौत
लगातार मुश्किल हालात में काम करने से इन बंधक मज़ूदरों की दिन-प्रतिदिन हालत ख़राब होती गई. दवाइयां न मिलने से इनकी हालत बद से बदतर हो गई. ऐसे में हर रोज़ मज़दूरों और युद्ध बंदियों की मौत होने लगी. बताया जाता है कि 415 किमी लंबी इस रेल लाइन को बनाने में क़रीब 80 हज़ार एशियाई मज़दूर और 14 हज़ार के क़रीब युद्ध बंदी मारे गए. अनुमान के मुताबिक, लगभग हर पांच कैदियों में से एक की मौत इस रेलवे मार्ग को बनाने में हुई थी. इतनी बड़ी संख्या में लोगों के मरने के कारण ही ये रेल लाइन ‘डेथ रेलवे’ नाम से मशहूर है.