भारत पर कई विदेशी शासकों ने राज किया. विदेशी वंशों के कई राजा यहां की धरती पर पैदा हुए, राज किया और राज-पाट हार भी गये. यहां की मिट्टी कई राजाओं के उत्थान-पथन की गवाही देती है. कई वंशों को फलते-फूलते और नेस्तनाबूत होते देखा है यहां की मिट्टी ने.
इस धरती पर कुछ शासक ऐसे भी हुए जिन्होंने इस मिट्टी की रक्षा करने की भी कोशिश की और वो भी विदेशी होने के बावजूद. The Indian Express के एक लेख के अनुसार मलिक अंबर भी ऐसा ही एक योद्धा था.
भारत पर कई विदेशी शासकों ने राज किया. विदेशी वंशों के कई राजा यहां की धरती पर पैदा हुए, राज किया और राज-पाट हार भी गये. यहां की मिट्टी कई राजाओं के उत्थान-पथन की गवाही देती है. कई वंशों को फलते-फूलते और नेस्त-ओ-नाबूत होते देखा है यहां की मिट्टी ने.
इस धरती पर कुछ शासक ऐसे भी हुए जिन्होंने इस मिट्टी की रक्षा करने की भी कोशिश की और वो भी विदेशी होने के बावजूद. The Indian Express के एक लेख के अनुसार मलिक अंबर भी ऐसा ही एक योद्धा था.
अफ़्रीका से बतौर ग़ुलाम भारत लाए गए मलिक अंबर की कहानी बेहद दिलचस्प और काफ़ी अलग है. युवावस्था में उसे कई बार ख़रीदा-बेचा गया और क़िस्मत उसे इथियोपिया स्थित अपने घर से दूर भारत ले आई. अंबर को हिन्दुस्तान में न सिर्फ़ अपनी आज़ादी वापस मिली बल्कि उसने सामाजिक सीढ़ी के कई पायदान पार करके अपनी सेना खड़ी की और एक शहर की स्थापना की, जिसे आज हम औरंगाबाद के नाम से जानते हैं.
प्रारंभिक जीवन
इतिहासकारों की माने तो अंबर का जन्म 1548 में इथियोपिया के खंबाटा क्षेत्र में ओरोमा ट्राइब में हुआ. आज इस देश की 35 प्रतिशत आबादी ओरोमा ट्राइब की है. ग़ुलामों का धंधा करने वालों के हाथ लगने से पहले अंबर का नाम ‘चापू’ था. इतिहासकारों का कहना है कि या तो अंबर को युद्ध में बंदी बनाया गया या फिर उसके माता-पिता ने उसे ग़रीबी की वजह से बेच दिया.
अंबर को मध्य एशिया के बाज़ारों में ले जाया गया जहां उसे एक अरब ने ख़रीद लिया. उसे कई बार ख़रीदा-बेचा गया. इतिहासकर Richard.M.Eaton ने अपनी किताब, A Social History of the Deccan, 1300-1761 Eight Indian Lives में लिखा है कि ‘चापू’ को यमन में 80 डच गिल्डर्स में बेचा गया. वहां से उसे बग़दाद ले जाया गया जहां एक व्यापारी ने चापू की क़ाबिलियत पहचानी और उसे शिक्षित किया, उससे इस्लाम कु़बूल करवाया और उसे ‘अंबर’ नाम दिया.
1570 के दशक में अंबर को दक्कन (दक्षिण भारत) लाया गया. यहां चंगेज़ ख़ान ने उसे ख़रीदा, ख़ान ख़ुद ग़ुलाम था और अहमदनगर के निज़ाम शाही का पेशवा (मुख्यमंत्री) था.
यूं पलट गई एक ग़ुलाम की क़िस्मत
ख़ान ने अंबर समेत एक हज़ार ‘हब्शी’ ख़रीदे. Eaton के अनुसार, दक्कन की रियासतें 16वीं शताब्दी में हब्शी ख़रीद रहे थे. ये हबशी अपनी ईमानदारी, ताक़त के लिए जाने जाते थे और उनसे सैन्य बलों में भी शामिल किया जाता था.
इब्न बटूटा ने भी लिखा था कि हिन्द महासागर में सफ़र कर रहे जहाज़ों की सुरक्षा की गारंटी हब्शियों ने ही ले रखी थी. ये हब्शी इतने मशहूर थे कि अगर एक भी हब्शी जहाज़ पर होता तो समुद्री लुटेरे हमला नहीं करते थे.
दक्कन समाज में हब्शी हमेशा ग़ुलाम नहीं रहे. मालिक की मौत के बाद हब्शियों को आज़ाद कर दिया जाता और वो अपनी इच्छा से साम्राज्य के किसी ताक़तवार कमांडर की सेवा करते. कुछ हब्शी ख़ुद ही ताकतवर योद्धा बन गये और ऐसा ही एक हब्शी था अंबर.
चंगेज़ ख़ान के लिए अंबर ने 5 साल काम किया और फिर ख़ान की मौत हो गई, अंबर को आज़ादी मिल गई. इसके बाद अंबर ने 20 सालों तक बिजापुर के सुल्तान के लिए काम किया. बिजापुर में अंबर को एक छोटी टुकड़ी का भार दिया गया और उसे ‘मलिक’ उपनाम मिला.
अंबर की ज़मीन
1595 में अंबर अहमदनगर सल्तन लौटा और एक अन्य हब्शी के लिए काम किया. ये वो दौर था जब मुग़ल शासक अक़बर ने दक्कन पर नज़रें डाली हुई थीं और उसने अहमदनगर की ओर बढ़ना शुरू किया. इतिहासकारों के अनुसार ये अक़बर की आख़िरी मुहीम थी.
मुन.एस.पिल्लई की किताब Rebel Sultans: The Deccan From Khilji To Shivaji के मुताबिक़ पहली घेराबंदी के वक़्त अंबर की कमान में 150 घुड़सवार थे और वो दूसरे हब्शी मालिक के लिए काम कर रहा था. युद्ध के बाद राज्य बिखर गया और लोगों कि निष्ठा, भक्ति पर सवाल उठने लगे. 1600 तक अंबर की कमान में 7000 योद्धा आ गये, मराठा और दक्षिणी योद्धा भी अंबर की सेना में शामिल हो गये.
अंबर ने अपने बेटी की शादी अहमदनगर के शाही परिवार के एक वंशज से, पड़ोस के ही बिजापुर में की.
पिल्लई की किताब के अनुसार, अंबर ने ज़रूरत के हिसाब से बल और बुद्धि का इस्तेमाल किया. एक वक़्त था जब पश्चिमी दक्कन की निज़ाम शाही को अंबर की ज़मीन के नाम से ही जाना था.
मुग़लों ने अहमदनगर सल्तन पर कब्ज़ा कर लिया लेकिन उसके आस-पास का क्षेत्र अभी भी विद्रोह कर रहा था और इस विद्रोह की अगुवाई की अंबर ने.
Live Mint में पिल्लई के लेख के अनुसार, अंबर ने बिजापुर के सुल्तान को लिखा- ‘जब तक उसके शरीर में जान है वो तब तक मुग़लों से युद्ध करना चाहते हैं’. कई दक्कन राजकुमारों ने अंबर को पैसा और अन्य ज़रूरी सामान भेजा ताकी वो अक़बर और जहांगीर की सेनाओं को रोक सके.
1610 तक अंबर की सेना 10 हज़ार अफ़्रिकियों की सेना और 40 हज़ार अन्य सैनिक आ गये थे. इस लेख के मुताबिक़, शिवाजी से पहले अंबर ने मुग़लों के ख़िलाफ़ गुरिल्ला युद्ध छेड़ा था, शिवाजी ने उसे बाद में ‘परफ़ेक्शन’ दिया.
अंबर को भी कई बार हार, धोखेबाज़ी का सामना करना पड़ा लेकिन उसने मुग़लों से युद्ध जारी रखा. मराठाओं ने भी अंबर के ख़िलाफ़ विद्रोह किया.
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औरंगाबाद की स्थापना
एक योद्धा होने के अलावा अंबर एक कुशल शासक भी था. 1610 में मुग़लों ने जब अहमदनगर पर कब्ज़ा कर लिया तब अंबर ने सल्तनत के लिए एक नई राजधानी की स्थापनी की, इस शहर का नाम था खिरकी (औरंगाबाद).
इस शहर में मराठाओं समेत 2 लाख से ज़्यादा लोग रहने लगे. इस शहर में नहरें आदि बनवाई गई थी. पिल्लई के अनुसार, अंबर ने ही औरंगाबाद में जामा मस्जिद और काली मस्जिद बनवाई.
छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने महाकाव्य ‘शिवभारत’ में भी अंबर का ज़िक्र किया है और उसे सूर्य के भांति वीर बताया है. शिवाजी के दादा, मालोजी अंबर के क़रीबी थे.
अंबर की मौत 1626 में हुई और खुलदाबाद में उसकी कब्र बनवाई गई. अंबर की मौत के बाद जहांगीर की आत्मकथा लिखने वाले, मुतामिद खान ने लिखा था ‘युद्ध कौशल, न्याय, शासन करने में उसके जैसा कोई नहीं था. इतिहास में उसके जैसा कोई दूसरा अबीसीनिया ग़ुलाम नहीं है.’ 17वीं शताब्दी में औरंगज़ेब ने इस शहर का नाम औरंगाबाद रखा.