चीन की दीवार के बारे में तो आप सभी जानते ही होंगे कि ये दुनिया की सबसे विशाल दीवार है. लेकिन जब ज़िक्र दुनिया की सबसे प्राचीन दीवार का होता है तो ‘चीन की दीवार’ कहीं पीछे छूट जाती है. ये दीवार भारत में स्थित है. इस दीवार के बारे में कम ही लोग जानते हैं, लेकिन ये ‘द ग्रेट वॉल ऑफ़ चाइना’ से कहीं अधिक प्राचीन है.
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बिहार के नालंदा में राजगीर की पहाड़ियों पर स्थित The Great Wall of Bihar दुनिया की सबसे प्राचीन दीवार मानी जाती है. ‘मौर्य साम्राज्य’ के इस सुरक्षा कवच को साइक्लोपियन वॉल (Cyclopean Wall) के नाम से भी जाना जाता है. ये दीवार सैकड़ों साल पुरानी है. सन 1987 में इसे ‘विश्व धरोहर’ की सूची में शामिल किया गया था.
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कहा जाता है कि इस दीवार का निर्माण तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व मौर्य वंश (Maurya Dynasty) के शासकों ने बाहरी आक्रमणकारियों और दुश्मनों से अपनी राजधानी की रक्षा के उद्देश्य से किया था. मगध सम्राज्य के दौरान राजगृह (राजगीर) एक संपन्न नगरी हुआ करती थी. इसलिए यहां पर बाहरी आक्रमणकारियों का ख़तरा भी बना रहता था. चूना पत्थर से निर्मित इस दीवार के पत्थरों पर आपको ‘मिसीनियन वास्तुकला’ की झलक भी देखने को मिलेगी.
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बता दें कि ‘पाली ग्रंथों’ में भी इस ऐतिहासिक दीवार का प्रमुखता से ज़िक्र मिलता है. इनमें इस दीवार के ज़रिए ‘राजगृह’ की चाक चौबंद सुरक्षा की बात लिखी गई है. पाली ग्रंथों के अनुसार क़िलाबंद शहर में प्रवेश करने के लिए 32 बड़े द्वार और 64 छोटे द्वार थे. इस दौरान हर 5 गज पर एक सैनिक की तैनाती होती थी. दीवार को मजबूत करने के लिए एक उचित दूरी पर छूटे क़िले भी बनाए गए थे.
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बिहार के राजगीर में स्थित ‘साइक्लोपियन वॉल’ 4 मीटर ऊंची और क़रीब 40 किलोमीटर लंबी है. इस प्राचीन दीवार के अवशेष नालंदा और नवादा ज़िले की सीमा से सटे राजगीर स्थित वनगंगा के दोनों ओर के पर्वतों पर कई किलोमीटर ऊपर तक मौजूद हैं. ये दीवार वनगंगा के पश्चिमी क्षेत्र के सोनागिरी और पूर्वी क्षेत्र के उदयगिरी पर्वत श्रृखलाओं के उपर तक फ़ैली हुई है.
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इस दीवार को बनाने के लिए एक ख़ास तरह की तकनीक का इस्तेमाल किया गया है. दीवार का बाहरी हिस्सा बड़े पत्थरों से बना है, जबकि इसके बीच वाले भाग में छोटे पत्थर डाले गए हैं. राजगीर की पहाड़ियों पर बनी इस प्राचीन दीवार का काफ़ी हिस्सा आज भी वहां मौजूद है, जो पहाड़ी के आधार से ढाल की ओर शुरू होती है.
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आज इस प्राचीन दीवार के अधिकांश हिस्से बर्बाद हो चुके हैं. इसके अवशेष आज भी खंडहर के रूप में मौजूद हैं. हालांकि, अब भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण इसका रखरखाव करता है.
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