1857 का विद्रोह, सिर्फ़ अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भारतीयों के उठ खड़े होने के लिए नहीं जाना जाता है, बल्कि इस विद्रोह को महिलाओं की ज़ोरदार भूमिका के लिए भी याद किया जाता है. ये वो वक़्त था, जब रानी लक्ष्मी बाई का नाम सुनकर ही अंग्रेज़ों की रूंह कांप जाती थी. मग़र इस विद्रोह की बागडोर संभालने वाली एक महिला और थी, जिन्होंने अंग्रेज़ों को हिला कर रख दिया था, उनका नाम था बेगम हज़रत महल.
जिस दौर में महिलाओं की ज़िंदगी पर्दों के पीछे क़ैद थी, उस वक़्त नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हज़रत महल अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अवध के प्रतिरोध का प्रतीक बन गई थीं. आज हम अवध की इसी वीरांगना की कहानी से आपको रूबरू करवाने जा रहे हैं.
मुहम्मदी ख़ातून कैसे बनी बेगम हज़रत महल?
बेगम हज़रत महल का जन्म अवध प्रांत के फ़ैज़ाबाद ज़िले में हुआ था. उनके बचपन का नाम मुहम्मदी ख़ातून था. इनके माता-पिता बेहद ग़रीब थे, जो एक बेटी को पालने तक में सक्षम नहीं थे. ऐसे में उन्होंने मुहम्मदी ख़ातून को एक दलाल के हाथ बेच दिया. इसके बाद उन्हें नृत्य में प्रशिक्षित किया गया और वो एक मशहूर गणिका बन गईं. यहां से वे शाही हरम में एक खावासिन के तौर पर आ गईं.
मुहम्मदी ख़ातून को दोबारा बेच दिया गया. इस बार शाही दलालों के हाथ और उन्हें एक नया नाम मिला, ‘परी’ और वो ‘महक परी’ कहलाने लगीं. अवध के नवाब की नज़र जब उन पर पड़ी तो उन्हें शाही हरम में शामिल कर लिया गया. बाद में नवाब ने उनसे शादी कर ली और पुत्र बिरिजस कादर के जन्म के बाद उन्हें ‘हज़रात महल’ की उपाधि मिली.
बेगम ने फ़ूंका अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल
अंग्रेज़ों ने कुशासन के आरोप के आधार पर सन 1856 में अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गद्दी से उतार दिया गया. नवाब को कलकत्ता (कोलकाता) भेज दिया गया और पीछे रह गईं बेगम हज़रत महल और उनका 12 साल का बेटा बिरिजस कादर. इसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और अपने नाबालिग पुत्र को गद्दी का आधिकारिक उत्तराधिकारी बनाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया.
हालांकि, इस बीच क्वीन विक्टोरिया ने आधिकारिक तौर पर अवध को ईस्ट इंडिया के हवाले करने का आदेश जारी कर दिया. मग़र बेगम हज़रत महल ने भी इस आदेश को मानने से इंकार कर विद्रोह का झंडा उठा लिया. इसी के साथ उन्होंने अवध की जनता को भी एकजुट किया. अपने सिपाहियों का हौसला बढ़ाने के लिए वो ख़ुद मैदान में उतर जाती थीं. बेगम की इस क्रांति के निशान आज भी लखनऊ में रेजीडेंसी की दीवारों पर देखे जा सकते हैं.
बेगम अपनी पूरी ताकत से लड़ीं, मग़र अंग्रेज़ी सेना ने धीरे-धीरे अवध को अपने कब्ज़े में कर लिया. आख़िरकार बेगम को अवध छोड़कर नेपाल में शरण लेनी पड़ी, जहां उन्होंने अपने जीवन के आख़िरी दो दशक एक शरणार्थी की तरह गुज़ारे.
कहते हैं कि अंग्रेज़ों ने उन्हें मोटी पेंशन का लालच देकर वापस बुलाना चाहा, लेकिन उन्होंने साफ़ कर दिया कि एक आज़ाद अवध के अलावा उन्हें और कुछ भी मंज़ूर नहीं. अवध की इस नायिका ने 1879 में नेपाल में ही अपनी आंखिरी सांस ली. आज भी उनका मक़बरा नेपाल के काठमांडू में मौजूद है.