भारत में प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों का विशेष महत्व रहा है. आज से सैकड़ों साल पहले ‘ऋषि’, ‘मुनि’, ‘महर्षि’ और ‘ब्रह्मर्षि’ समाज के पथ प्रदर्शक माने जाते थे. तब यही लोग अपने ज्ञान और तप के बल पर समाज कल्याण का कार्य किया करते थे और लोगों को समस्याओं से मुक्ति दिलाते थे. हमें आज के दौर में कई तीर्थ स्थलों, मंदिरों, जंगलों और पहाड़ों में कई साधु-संत देखने को मिल जाते हैं. लेकिन ये ऋषि-मुनियों की तरह इतने ज्ञानी नहीं होते. भारत में आज भी अधिकतर लोग ऋषि, मुनि, महर्षि, साधु और संत को एक समान ही समझते हैं. लेकिन असल में इन सबकी अलग-अलग पहचान और विशेषता होती है. इसीलिए आज हम आपको ऋषि, मुनि, महर्षि, साधु और संत में क्या अंतर है वही बताने जा रहे है.
ये भी पढ़ें: तन पर राख और लंगोट पहनने वाले ये नागा साधु युद्ध कला में भी माहिर होते हैं. हरा चुके हैं मुगलों को
![](https://wp.hindi.scoopwhoop.com/wp-content/uploads/2022/06/62b2f533fc21eb0001213564_c8c3b89a-1059-4b70-a2bd-fb2c54501ffd.jpg)
चलिए जानते हैं ऋषि, मुनि, महर्षि, साधु और संत में क्या अंतर होता है (Difference Between Rishi, Muni, Maharishi, Sadhu And Sant)
1- ऋषि
‘ऋषि’ वैदिक संस्कृत भाषा का शब्द है. प्राचीनकाल में वैदिक रचनाओं के रचयिताओं को ‘ऋषि’ का दर्जा प्राप्त था. ऋषि अपने योग के माध्यम से परमात्मा को प्राप्त हो जाते थे और अपने सभी शिष्यों को आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे. वैदिक काल में सभी ऋषि ‘गृहस्थ आश्रम’ से आते थे. ऋषि पर किसी तरह का क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और ईर्ष्या आदि की कोई रोकटोक नहीं है और ना ही किसी भी तरह का संयम का उल्लेख मिलता है. प्राचीनकाल में ऋषि भौतिक पदार्थ के साथ-साथ उसके पीछे छिपी ऊर्जा को भी देखने में सक्षम थे. हमारे पुराणों में सप्त ऋषि का उल्लेख मिलता है, जो केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ठ तथा भृगु हैं.
![](https://wp.hindi.scoopwhoop.com/wp-content/uploads/2022/06/62b2f533fc21eb0001213564_0eab8810-acc9-44fc-9bc2-3618d94a5aa5.jpg)
2- मुनि
मुनि शब्द का अर्थ होता है मौन अर्थात शांति. मुनि बेहद कम बोलते हैं. ये मौन रखने की शपथ लेते हैं और वेदों और ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त करते हैं. मौन साधना के साथ-साथ जो व्यक्ति एक बार भोजन करता हो और 28 गुणों से युक्त होता है वो ‘मुनि’ कहलाता था. प्राचीनकाल में जो ऋषि साधना प्राप्त करते थे और मौन रहते थे उनको ‘मुनि’ का दर्जा प्राप्त होता था. हालांकि, कुछ ऐसे ऋषियों को मुनि का दर्जा प्राप्त था, जो ईश्वर का जप करते थे. इनमें नारद मुनि का नाम शामिल है. मुनि शास्त्रों की रचना करते हैं और समाज के कल्याण का रास्ता दिखाते हैं.
![](https://wp.hindi.scoopwhoop.com/wp-content/uploads/2022/06/62b2f533fc21eb0001213564_18151a7f-535d-4734-ae98-18da18b3ffd7.jpg)
What is the Difference Between Rishi, Muni, Maharishi, Sadhu And Sant
3- महर्षि
ज्ञान और तप की उच्चतम सीमा पर पहुंचने वाले व्यक्ति को ‘महर्षि’ कहा जाता है. महर्षि मोह-माया से विरक्त होते हैं और परामात्मा को समर्पित हो जाते हैं. महर्षि से ऊपर केवल ‘ब्रह्मर्षि’ माने जाते हैं. गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र ‘ब्रह्मर्षि’ थे. प्राचीन ग्रंधों के मुताबिक़ हर इंसान में 3 प्रकार के चक्षु होते हैं ‘ज्ञान चक्षु’, ‘दिव्य चक्षु’ और ‘परम चक्षु’. जिस इंसान का ‘ज्ञान चक्षु’ जाग्रत हो जाता है, उसे ‘ऋषि’ कहते हैं. जिसका ‘दिव्य चक्षु’ जाग्रत होता है उसे ‘महर्षि’ कहते हैं और जिसका ‘परम चक्षु’ जाग्रत हो जाता है उसे ‘ब्रह्मर्षि’ कहते हैं. अंतिम महर्षि दयानंद सरस्वती थे, जिन्होंने मूल मंत्रों को समझा और उनकी व्याख्या की. इसके बाद आज तक कोई भी व्यक्ति ‘महर्षि’ नहीं बन पाया.
![](https://wp.hindi.scoopwhoop.com/wp-content/uploads/2022/06/62b2f533fc21eb0001213564_46f9aa88-d5fb-4b01-93bf-97e7af598ff3.jpg)
4- साधु
आमतौर पर साधना करने वाले व्यक्ति को ‘साधु’ कहा जाता है. साधु होने के लिए विद्वान होने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि साधना कोई भी कर सकता है. प्राचीनकाल में कई व्यक्ति समाज से हटकर किसी की साधना में लग जाते थे और विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे. कई बार अच्छे व बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी ‘साधु’ शब्द का प्रयोग किया जाता है. इसका कारण ये है कि साधना से व्यक्ति सीधा, सरल और सकारात्मक सोच रखने वाला बन जाता है. इसके साथ ही ‘साधु’ लोगों की मदद करने के लिए हमेशा आगे रहते हैं. संस्कृत में साधु शब्द का अर्थ है सज्जन व्यक्ति से है, जिसका एक गुण ये भी है कि ऐसा व्यक्ति जो 6 विकार-काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का त्याग कर देता है. इन सब चीज़ों का त्याग करने वाले व्यक्ति को ‘साधु’ की उपाधि दी जाती है.
![](https://wp.hindi.scoopwhoop.com/wp-content/uploads/2022/06/62b2f533fc21eb0001213564_ef7691f8-31ea-48d3-bcdc-f8667a5f5c87.jpg)
5- संत
‘संत’ शब्द संस्कृत के शब्द शांत और संतुलन से बना है. संत उस व्यक्ति को कहा जाता हैं, जो सत्य का आचरण करता है और आत्मज्ञानी होता है. इसमें संत कबीरदास, संत तुलसीदास, संत रविदास के नाम शामिल हैं. ईश्वर के भक्त या धार्मिक शख़्स को भी संत कहा जाता है. घर-परिवार को त्यागकर मोक्ष की प्राप्ति के लिए जाने का मतलब ‘संत’ बनना नहीं है. इसलिए हर साधु और महात्मा ‘संत’ नहीं कहलाते हैं. इस प्रक्रिया में जो व्यक्ति संसार और अध्यात्म के बीच संतुलन बना लेता है, उसे ‘संत’ कहा जाता हैं. संत के अंदर सहजता, शांत स्वभाव में ही बसती है.
![](https://wp.hindi.scoopwhoop.com/wp-content/uploads/2022/06/62b2f533fc21eb0001213564_69766400-f980-49f3-a1f8-89001cffab9d.jpg)
ये भी पढ़ें: कुंभ मेले की पहचान हैं साधु-संत और नागा बाबा, यक़ीन न आए तो ये तस्वीरें देख लो
वीडियो भी देख लीजिये:
क्यों आज पता चला न ऋषि, मुनि, महर्षि, साधु और संत सब अलग-अलग होते हैं!