आज भी जब किसी अपराधी को कठोर से कठोरतम सज़ा देने की बात की जाती है तो अक्सर ‘कला पानी की सजा’ का ज़िक्र शुरू हो जाता है. ब्रिटिश हुकूमत के दौरान ‘काला पानी की सजा’ काफ़ी ख़तरनाक मानी जाती थी. आज भी ये शब्द भारत में सबसे बड़ी और डरावनी सजा के तौर पर मुहावरा बना हुआ है. इस सजा में आख़िर ऐसा क्या था, जो आज तक इसकी चर्चा की जाती है, क्यों इसे क्रूरतम श्रेणी में गिना जाता है?  

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चलिए विस्तार से जानते हैं…  

भारत के अंडमान निकोबार द्वीप समूह पर बनी ‘सेल्युलर जेल’ आज भी अपने में ‘कला पानी की सजा’ की कई दर्दनाक कहानियों को समेटे हुए है. आज भले इस जेल को ‘राष्ट्रीय स्मारक’ में बदल दिया गया हो, लेकिन बटुकेश्वर दत्त, डॉ. दीवान सिंह, योगेंद्र शुक्ल, भाई परमानंद, सोहन सिंह, वामन राव जोशी और नंद गोपाल जैसे लोग भी इसी जेल में क़ैद रहे थे जैसे अनेक सेनानियों की कहानी आज भी ये जेल हमें सुनाती है. सेल्युलर जेल भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय भी है.

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बात भारत के ‘स्वाधीनता आंदोलन’ के दौर की है, जब देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा था. इस दौरान अंग्रेज़ सरकार भारत के स्वतंत्रता सेनानियों पर कहर ढा रही थी. आज़ादी का बिगुल फूकने वाले हज़ाजारों सेनानियों को फांसी दे दी गई, तोपों के मुंह पर बांधकर उन्हें उड़ा दिया गया. उन्हें तड़पा तड़पकर मारा जाता था. इस दौरान अंग्रेज़ों के पास ‘सेल्युलर जेल’ नाम का एक विनाशकारी का अस्त्र हुआ करता था. 

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अंडमान के पोर्ट ब्लेयर सिटी में स्थित ‘सेल्यूलर जेल’ का निर्माण 1896 में प्रारंभ हुआ और 1906 ये बनकर तैयार हुई. इसका मुख्य भवन लाल ईंटों से बना है. ये ईंटें बर्मा (म्यांमार) से यहां लाई गई थी. इस भवन की 7 शाखाएं थीं और इसके बीचों-बीच एक टावर बनाया गया था. इसी टावर से क़ैदियों पर नज़जर रखी जाती थी. टावर के ऊपर एक बहुत बड़ा घंटा लगा था, जो किसी भी तरह का संभावित ख़तरा होने पर बजाया जाता था. 

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इसे ‘सेल्युलर जेल’ क्यों कहा जाता था? 

इस जेल को ‘सेल्युलर’ इसलिए नाम दिया गया था, क्योंकि यहां पर एक क़ैदी को दूसरे से बिलकुल अलग रखा जाता था. जेल में हर क़ैदी के लिए एक अलग सेल होती थी. यही अकेलापन क़ैदी के लिए सबसे भयावह होता था. इस जेल में कितने भारतीयों फांसी की सजा दी गई और कितने मारे गए इसका कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है. लेकिन आज भी जीवित स्वतंत्रता सेनानियो के जेहन में कालापानी शब्द भयावह जगह के रूप में बसा है.

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क्यों कहा जाता था इसे ‘काला पानी की सजा’? 

7 शाखाओं वाली इस 3 मंज़िला जेल में सोने के लिए कमरे नहीं, बल्कि 698 कोठरियां बनाई गयी थीं. प्रत्येक कोठरी 15×8 फीट की थी, जिसमें 3 मीटर की ऊंचाई पर रोशनदान हुआ करती थी. इस दौरान एक कोठरी का क़ैदी दूसरी कोठरी के क़ैदी से कोई संपर्क नहीं रख पाता था. इसकी चाहरदीवारी इतनी छोटी थी कि इसे आसानी से पार किया जा सकता है, लेकिन ये जगह चारों ओर से गहरे समुद्र से घिरी हुई है. सैकड़ों किमी दूर तक फ़ैले समंदर के अलावा यहां कुछ भी नजर नहीं आता है.

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19वीं शताब्दी में जब स्वतंत्रता संग्राम ने ज़ोर पकड़ा, तब यहां क़ैदियों की संख्या भी बढ़ गई. इस दौरान जेल में बंद ‘स्वतंत्रता संग्राम’ सेनानियों को बेड़ियों से बांधा जाता था. कोल्हू से तेल पेरने का काम सेनानियों से करवाया जाता था. इस दौरान हर क़ैदी को 30 पाउंड नारियल और सरसों को पेरना होता था. यदि वो ऐसा नहीं कर पाता था तो उन्हें बुरी तरह से पीटा जाता था और बेडियों से जकड़ दिया जाता था.

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ब्रिटिश सरकार से बगावत करने वालों को सजा देने के लिए ये द्वीप एक अनुकूल जगह समझी जाती थी. जेलर डेविड बेरी और मेजर जेम्स पैटीसन वॉकर की सुरक्षा में सबसे पहले 200 क्रांतिकारियों को यहां लाया गया. इस दौरान उन्हें न सिर्फ़ समाज से अलग करने के लिए यहां लाया जाता था, बल्कि उनसे जेल निर्माण, भवन निर्माण, बंदरगाह निर्माण आदि के काम भी लिए जाते थे.

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किसे दी जाती थी ‘काला पानी की सजा’? 

‘काला पानी’ में अधिकाश क़ैदी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे. इनमें प्रमुख रूप से बटुकेश्वर दत्त, विनायक दामोदर सावरकर, डॉ. दीवन सिंह, मौलाना फ़ज़ल-ए-हक़ खैराबादी, योगेंद्र शुक्ला, मौलाना अहमदउल्ला, मौवली अब्दुल रहीम सादिकपुरी, बाबूराव सावरकर, भाई परमानंद, शदन चंद्र चटर्जी, सोहन सिंह, वमन राव जोशी, नंद गोपाल आदि थे. 

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1930 में भगत सिंह के सहयोगी रहे महावीर सिंह ने अत्याचार के ख़िलाफ़ इस जेल में भूख हड़ताल की थी. जेल कर्मचरियों ने उन्हें जबरन दूध पिलाया. दूध जैसे ही पेट के अंदर गया उनकी मौत हो गई. इसके बाद उनके शव में एक पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक दिया गया था. अंग्रेज़ों के इस अमानवीय अत्याचार के बाद जेल के अन्य क़ैदियों ने भी भूख हड़ताल शुरू कर दी. तब महात्मा गांधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसमें हस्तक्षेप किया था.

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सन 1942 में जापान ने अंडमान पर अंग्रेज़ों को परास्त कर ‘सेल्युलर जेल’ पर कब्ज़ा किया. इस दौरान जापानियों ने 7 में से 2 शाखाओं को नष्ट कर दिया था. बंधक बनाए गए अंग्रेज़ क़ैदियों को सेल्युलर जेल में बंद कर दिया गया था. तब नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी जेल का दौरा किया था. ‘द्वितीय विश्व युद्ध’ ख़त्म होने के बाद 1945 में अंग्रेज़ों ने फिर से यहां अपना कब्ज़ा जमा लिया.

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‘सेल्युलर जेल’ में केवल भारत के ही नहीं, बल्कि बर्मा तक के विद्रोहियों को भी क़ैद में रखा गया था. एक बार यहां 238 कैदियों ने भागने की कोशिश की थी लेकिन उन्हें पकड़ लिया गया. इस दौरान एक क़ैदी ने तो आत्महत्या कर ली और बाकी पकड़े गए. इसके बाद जेल अधीक्षक वाकर ने 87 लोगों को फांसी पर लटकाने का आदेश दिया था.

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आज़ादी के बाद ‘सेल्युलर जेल’ की 2 अन्य शाखाओं को भी कर दिया गया. शेष बची 3 शाखाएं और मुख्य टावर को 1969 में ‘राष्ट्रीय स्मारक’ घोषित कर दिया गया. सन 1963 में यहां गोविन्द वल्लभ पंत अस्पताल खोला गया. वर्तमान में ये 500 बिस्तरों वाला अस्पताल है और 40 डॉक्टर यहां के निवासियों की सेवा कर रहे हैं.