भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले क्रांतिवीरों में अरुणा आसफ़ अली (Aruna Asaf Ali) का नाम भी दर्ज है. वो आज़ादी के लिए किए गए आंदोलनों में उस दौरान की लीडिंग महिला सेनानी थीं. उन्होंने 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का नेतृत्व भी किया था. जनता ने उस दौरान उनका नाम ग्रैंड ओल्ड लेडी रख दिया. यहां तक उन्होंने अंग्रेज़ों की नाक में इस कदर दम कर रखा था कि अंग्रेज़ों ने उनकी गिरफ़्तारी का वारंट निकाला था और उनके ख़िलाफ़ 5000 रुपये का ईनाम भी घोषित कर दिया था.
आइए आपको आज़ादी के दौरान की नायिका अरुणा आसफ़ अली के बारे में बताते हैं, जिनके साहस और आत्मविश्वास से ब्रिटिश सेना तक खौफ़ खाती थी.
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कौन थीं अरुणा आसफ़ अली?
साल 1909 में अरुणा गांगुली के नाम से एक बंगाली ब्राह्मण फ़ैमिली में जन्मी, इस फ़्रीडम फ़ाइटर ने अपनी स्कूलिंग ‘लाहौर सेक्रेड हार्ट कॉन्वेंट’ से पूरी की थी और इसके बाद नैनीताल के ‘ऑल सेंट्स कॉलेज’ में अपनी कॉलेज की पढ़ाई कंप्लीट की. इसके बाद उन्होंने बतौर टीचर कलकत्ता के ‘गोखले मेमोरियल स्कूल’ में पढ़ाना शुरू किया. उनके पिता उपेन्द्रनाथ गांगुली एक रेस्तरां के मालिक थे, आधुनिक बांग्लादेश में बारिसल से संयुक्त प्रांत में चले गए थे. 19 साल की उम्र में साल 1928 में उन्होंने भारतीय नेशनल कांग्रेस के प्रमुख सदस्य आसफ़ अली से शादी कर ली थी. इस रिश्ते के उनके परिवारवाले खिलाफ़ थे, क्योंकि उनके पति दूसरे धर्म के होने के साथ ही उनसे 23 साल बड़े थे.
राजनीति में अरुणा आसफ़ अली की एंट्री
अरुणा की आसफ़ अली से शादी ने उनका राजनीति की दुनिया से परिचय कराया और जल्द ही वो अपने पति के पद्चिन्हों को फॉलो करके भारतीय नेशनल कांग्रेस की सक्रिय सदस्य बन गईं. वो कई संघर्षों में सबसे आगे एक जाना-पहचाना चेहरा थीं और अपने राजनीतिक पदार्पण के दो साल बाद उन्हें 1930 में नमक सत्याग्रह में भाग लेने के लिए गिरफ़्तार किया गया था.
पुलिस ने उन पर आवारा होने का चार्ज लगाया और उनको जेल से तब भी नहीं रिहा किया, जब गांधी-इरविन संधि के तहत कई क़ैदियों को जेल से रिहा किया जा रहा था. उनकी बाकी महिला सह-कैदियों को इस फ़ैसले पर गुस्सा आ गया और जब तक अरुणा को उनके साथ रिहा नहीं किया गया, तब तक उन्होंने जेल से बाहर आने से इंकार कर दिया.
साल 1932 में उन्हें एक बार फिर तिहाड़ जेल में बंद कर दिया गया. वो तिहाड़ जेल में राजनीतिक क़ैदियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार के खिलाफ़ भूख हड़ताल पर चली गई थीं, जिससे उनकी रहने की स्थितियों में सुधार हुआ.
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जब अरुणा को कहा जाने लगा 1942 की हीरोइन
साल 1942 में जब सभी प्रमुख लीडर्स को भारत छोड़ो आंदोलन के ख़िलाफ़ एक पूर्व उपाय के रूप में अंग्रेज़ों द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया था, तब उन्होंने गोवलिया टैंक मैदान में भारत का ध्वज फ़हराकर ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ को एक ज़रूरी पुश दिया. उस दौरान उन्हें ‘1942 की हीरोइन’ कहा जाने लगा था.
चूंकि ब्रिटिश पुलिस उनको ढूंढ रही थी, तो वो गिरफ़्तार होने से बचने के लिए छिप गईं. जब वो अंडरग्राउंड थीं, तब उन्होंने अपना संघर्ष अंडरग्राउंड रेडियो, पैम्फलेट और ‘इंकलाब’ जैसी मैगज़ीन से अपना संघर्ष जारी रखा. उनके आंदोलनों से परेशान होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें पकड़ने के लिए ₹5000 का इनाम तक घोषित कर दिया था. उन्होंने 1946 में खुद को आत्मसमर्पण करने के गांधी के अनुरोध की भी अवहेलना की थी.
अरुणा समय से थीं काफ़ी आगे
अरुणा आसफ़ अली ने शिक्षा के ज़रिए महिलाओं के उत्थान में काफ़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उन्होंने अपनी साप्ताहिक पत्रिकाओं ‘वीकली‘ और समाचार पत्र ‘पैट्रियट‘ के माध्यम से महिलाओं को शिक्षित होने की आवश्यकता के बारे में जागरूकता पैदा की.
आज़ादी के बाद, वो जनता के कामों में सक्रिय रहीं और 1958 में दिल्ली की पहली महिला मेयर चुनी गईं. वो नई दिल्ली में वामपंथी झुकाव वाले न्यूज़पेपर और साप्ताहिक मैगज़ीन लिंक चलाती थीं. उन्हें 1992 में पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया. अरुणा का 29 जुलाई 1996 को देहांत हो गया. उनके निधन के एक साल बाद उन्हें 1997 में भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया था.
अरुणा अली देश के लिए एक आइकॉन थीं.